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रविवार, 31 मई 2009

इतिहास के आईने में आडवाणी

संध्या पांडे

लालकृष्ण आडवाणी के जीवन की 50 वर्षों की राजनैतिक यात्रा उनके 51 विरोधाभासों को ही उभारता है. रही-सही कसर एनडीए सरकार के दौरान बतौर गृहमंत्री उनके कामकाज की समीक्षा से पूरी हो जाती है. साफ पता चलता है कि भाजपा का यह नेता कमज़ोर, सिद्धांतहीन और नितांत अवसरवादी विचारधारा वाला तो है ही, वह डरपोक भी है. गुजरात के गोधरा कांड और उसके बाद वहां हुए दंगों के दौरान आडवाणी की भूमिका जहां मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का बचाव करने वाले की रही, वहीं बाबरी विध्वंस के लिए अपने को बचा कर दूसरों को फंसाने वाली भी रही. लेकिन प्रेम और जंग में सब कुछ जायज़ के उनके सिद्धांत को उनकी ही एक किताब ने तार-तार कर दिया है. किताब का नाम है-मेरा देश, मेरा जीवन. हिंदी और अंग्रेज़ी में आडवाणी जी की यह मोटी पुस्तक पंद्रहवीं लोकसभा चुनाव से कुछ माह पहले आई थी. इसमें उन्होंने अपने जीवन और राजनैतिक सफर के बारे में विस्तार से लिखा है. इस पुस्तक के सहारे आडवाणी जी के बारे में जो जानकारियां निकली हैं, वह रोचक के साथ-साथ आश्चर्यजनक भी हैं. इस किताब से पता चलता है कि चाल, चरित्र और चिंतन के मामले में भाजपा का यह कथित मज़बूत नेता कितने विरोधाभासों से भरा है.

शुरुआत स्वतंत्रता संग्राम में उनकी भूमिका से. आडवाणी ने 1942 में जब हैदराबाद (सिंध) के दयाराम गिदूमल कॉलेज में प्रवेश किया, तब भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हो चुका था. शहर में स्थिति अशांत होने के कारण कॉलेज मुश्किल से ही सुचारू रूप से चल पाता और अधिकतर विद्यार्थी इधर-उधर घूमते रहते थे. ऐसे में समय गुजारने के लिए कॉलेज की लाइब्रेरी उनकी पसंदीदा जगह होती थी. जहां तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से जुड़ने की बात है तो आडवाणी 14 वर्ष की आयु में स्वयंसेवक बन गए थे. चूंकि संघ ने आज़ादी के आंदोलन में भाग नहीं लिया था, इसलिए उनके भी आज़ादी की लड़ाई में भाग लेने का सवाल ही नहीं उठता. फिर भी आडवाणी जी अपने को देशभक्त और राष्ट्रवादी कहते हैं तो यह उनका बड़बोलापन ही कहलाएगा. वैसे उन्होंने 1946 में नागपुर में आरएसएस में तीसरे वर्ष का प्रशिक्षण भी पूरा किया, लेकिन कभी स्वतंत्रता आंदोलन के लिए कोई काम नहीं किया. लगभग 17 वर्ष की आयु में उन्होंने शिक्षक की नौकरी शुरू कर दी थी.यह तो सब जानते हैं कि आडवाणी पाकिस्तानी शरणार्थी हैं, लेकिन वह बहुत कम लोगों को पता है कि वह दरअसल भागकर आए थे. बात 9 सितंबर 1947 की है. उस दिन कराची की संभ्रांत कॉलोनी-शिकारपुर-में बम विस्फोट हुआ. उस विस्फोट को देखते हुए संघ के संघचालक खानचंद गोपालदास और अन्य प्रमुख 19 स्वयंसेवकों को गिरफ्तार कर लिया गया. आडवाणी को उस विस्फोट के बारे में कोई जानकारी नहीं थी. फिर भी चूंकि स्थानीय प्रेस ने संघ के विरुद्ध गंभीर आरोप लगाने शुरू कर दिए थे, इसलिए उन्हें शहर छोड़ देने की सलाह दी गई. सलाह मानते हुए 12 सितंबर को वह विमान से.......


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