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रविवार, 2 अगस्त 2009

बंगाल में आंधी

बिमल राय

9 अगस्त 1997 को जब कोलकाता के नेताजी स्टेडियम में कांग्रेस का 80वां पूर्ण अधिवेशन चल रहा था, उसी समय ममता ने मेयो रोड के चौराहे पर गांधीजी की प्रतिमा के सामने अपना तृणमूल का पौधा रोपा. उस समय वह स़िर्फ बंगाल कांग्रेस का अध्यक्ष पद मांग रही थीं, पर तृणमूल के टिकट पर सांसद बने सोमेन मित्र तब ममता के दुश्मन नंबर एक हुआ करते थे.
देह पर नीले बॉर्डर वाली उजली साड़ी और पैर में हवाई चप्पल. पानी और कीचड़ भरी सड़कों पर चलते समय छीटें पड़ते हैं तो पड़ें, मगर उन्हें वहां जल्दी पहुंचना है. इसलिए कि जनता पुकार रही है. बंगाल की तीन दशकों की वाम राजनीति के कुरुक्षेत्र में यह चेहरा हर जगह दिखा है. नाकामियों से निराश नहीं हुई. जनता के दुख-दर्द को अपना समझा, वह भी तहे दिल से. आंसू निकले तो तहे दिल से. आम नेताओं की तरह घड़ियाली नहीं. जी हां, ममता बनर्जी की इसी सादगी, संयम और परिश्रम ने उन्हें एक कामयाब जननेता की कुर्सी पर बैठाया है. अब राज्य की सत्ता के काफ़ी क़रीब दिख रहीं ममता अगले दो सालों में बंगाल की राजनीति की दिशा पलटने वाली हैं. 9 अगस्त 1997 को जब कोलकाता के नेताजी स्टेडियम में कांग्रेस का 80वां पूर्ण अधिवेशन चल रहा था, उसी समय ममता ने मेयो रोड के चौराहे पर गांधीजी की प्रतिमा के सामने अपना तृणमूल का पौधा रोपा. उस समय वह स़िर्फ बंगाल कांग्रेस का अध्यक्ष पद मांग रही थीं, पर तृणमूल के टिकट पर सांसद बने सोमेन मित्र तब ममता के दुश्मन नंबर एक हुआ करते थे. राज्य युवा कांग्रेस के मुखिया के रूप में कार्य करते हुए ही उन्होंने एक तरह से बग़ावत का बिगुल फूंक दिया था. सोमेन से झगड़े की बड़ी वजह माकपा से उनकी क़रीबी ही थी. ममता जहां वाम के ख़िला़फ कड़े तेवर अपनाने के पक्ष में रहती थीं, वहीं ममता के राजनीतिक तेवर बग़ावती या एक तरह से कहें तो अतिवादी रहे. 1984 के लोकसभा चुनाव में जादवपुर सीट से खड़े माकपा नेता सोमनाथ चटर्जी को हराकर उन्होंने बंगाल की राजनीति में एक तरह से धमाका कर दिया था. उसके बाद ममता ने पीछे मुड़कर नहीं देखा.बग़ावती तेवर के कारण भी दिखे. आठ अप्रैल 1992 को बंगाल कांग्रेस के अध्यक्ष पद के चुनाव में जब ममता पराजित हुईं, उनका क्षोभ पनपा. यह वैसा ही था कि सीनियर के मुक़ाबले किसी जूनियर को प्रोमोशन दे दिया जाए. उस समय सोमेन की संगठन पर पकड़ मज़बूत थी, मगर जनता में एक जुझारू नेता के रूप में स़िर्फ ममता ही दिखती थीं. बंगाल की गलियों में इस घायल शेरनी की दहाड़ गूंजने लगी. 1993 में ममता ने कांग्रेस के समानांतर ट्रेड यूनियन का गठन कर लिया. इससे उनके पार्टी से अलग होने के संकेत मिलने शुरू हो गए. ममता ने युवा शाखा को अपने तरीक़े से संचालित करना शुरू कर दिया. 1993 में ममता नदिया जिले की एक बलात्कार पीड़िता को लेकर राइटर्स बिल्डिंग चली गईं. वहां मुख्यमंत्री ज्योति बसु ने मिलने से इंकार कर दिया तो वह बसु के घर के सामने धरने पर बैठ गईं. 23 जुलाई को यहां हुए हंगामे और पुलिस फायरिंग में 13 युवा कांग्रेस कार्यकर्ता मारे गए और इसे लेकर पूरे राज्य में उन्होंने आंदोलन किया. तृणमूल हर साल इस दिन को शहीद दिवस के रूप में मनाती है. 1996 के विधानसभा चुनावों में आपराधिक छवि वाले नेताओं को विधानसभा का टिकट देने के मामले पर ममता ने गले में शाल का फंदा लगाकर आत्महत्या करने की कोशिश की. 1997 में अग्निकन्या ने कांग्रेस के संगठनात्मक चुनावों का बायकाट किया. इस तरह कांग्रेसी के रूप में 35 साल और विक्षुब्ध के रूप में छह साल गुज़ारने के बाद नौ अगस्त 1997 में उन्होंने तृणमूल कांग्रेस नाम से पार्टी बनाई. एक सक्रिय कांग्रेसी के तौर पर क़रीब 12 साल के कार्यकाल में ममता ने अपने आंदोलनों से बंगाल कांग्रेस में नेतृत्व के ख़ालीपन को भरा, क्योंकि सिद्धार्थ शंकर राय के बाद बंगाल कांग्रेस एक तरह से नेतृत्वहीन हो गई थी. यह भी सच है कि कांग्रेस में रहने के दौरान ममता की ताक़त का एक बड़ा हिस्सा आपसी लड़ाई में ही जाया हुआ. दिल्ली में बैठे कांग्रेस आलाकमान ने कभी ममता का खुले रूप में साथ नहीं दिया. राजीव गांधी का बुलडोजरी अनुशासन वाला युग ख़त्म होने....

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