चौथी दुनिया पढ़िए, फैसला कीजिए

सोमवार, 22 जून 2009

उच्च शिक्षा में उच्च स्तर की घपलेबाज़ी

गंगेश मिश्र



देश में उच्च शिक्षा में उच्च स्तर पर घपलेबाज़ी का बड़ा खेल चल रहा है। कॉलेजों-विश्वविद्यालयों के लिए माई-बाप समझी जाने वाली संस्था-विश्वविद्यालय अनुदान आयोग यानी यूजीसी-ने बड़े पैमाने पर निजी संस्थानों को समकक्ष यानी डीम्ड यूनिवर्सिटी का दर्जा देकर देश में एक समानांतर शिक्षा व्यवस्था खड़ी कर दी है। वह भी केंद्र सरकार और उसके मानव संसाधन विकास मंत्रालय की आंखों के सामने. इस घपलेबाज़ी को अदालत से लेकर संसद की समिति तक पकड़ चुकी है, पर सरकार है कि कार्रवाई के बदले बयानबाज़ी कर रही है.कितनी अजीब बात है कि जिस देश में शिक्षा और शैक्षिक संस्थानों की सबसे अधिक चर्चा होती है, वहां दुनिया के सबसे अधिक निरक्षर वयस्क रहते हैं. भारत सरकार, राष्ट्रपति, सुप्रीम कोर्ट से लेकर संसद तक चाहे तो इस पर गर्व कर ले, हम तो शर्मसार हैं. भारतीय लोकतंत्र की इन शिखर संस्थाओं की उदासीनता से भी हम चकित हैं कि इन सबका ज़ोर उस उच्च शिक्षा पर अधिक रहता है, जिसे देश की आबादी की केवल नौ फीसदी ही प्राप्त करती है. यह कहते हुए हम सब गर्व करते हैं कि भारत गांवों का देश है, लेकिन क्या यह भी उतना ही गर्व करने लायक है कि ग्रामीण इलाक़ों में उच्च शिक्षा की दर महज़ सात से आठ फीसदी है. इसके विपरीत संपन्न इलाकों में यह 27 फीसदी है.यह तो हुई एक बात. दूसरी बात यह कि मनमोहन सिंह के नेतृत्व में दोबारा सत्ता में आई यूपीए सरकार ने शिक्षा में सुधार के लिए सौ दिनों का जो एजेंडा तय किया है, उसमें भी सबसे अधिक ज़ोर उच्च शिक्षा पर ही है. सौ दिन के इस एजेंडे को उस मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने तैयार किया है, जिस पर देश में शिक्षा व्यवस्था को दुरुस्त करने का ज़िम्मा है. लेकिन उसकी प्राथमिकता में सबसे ऊपर फॉरेन एजुकेशनल इंस्टीट्यूशन (रेगुलेशन ऑफ इंट्री एंड ऑपरेशन, मेंटनेंस ऑफ क्वालिटी एंड प्रिव्हेंशन ऑफ कॉमर्सलाइज़ेशन) बिल को पारित कराना है. यानी भारत में गुणवत्ता युक्त उच्च शिक्षा सुनिश्चित कराने के लिए विदेशी यूनिवर्सिटी को शैक्षणिक संस्थान खोलने की छूट होगी. इन विदेशी विश्वविद्यालयों को यहां डीम्ड यूनिवर्सिटी का दर्जा मिलेगा और वे विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के (यूजीसी) के नियमों के तहत ही संचालित होंगी. उसी तरह, जिस मनमाने ढंग से देश भर में अनगिनत और कुख्यात डीम्ड यूनिवर्सिटी चल रही हैं. यानी इस सरकार की आंख पर जो नज़र का चश्मा चढ़ा है, वह उच्च और तकनीकी शिक्षा से अधिक नहीं देख पाता. तो क्या बेसिक और प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने के लिए बड़े क़दम नहीं उठाए जाएंगे? हम बता दें, नहीं. इसलिए कि उससे जेबें नहीं भरतीं. यही कारण है कि 1956-1990 के बीच देश भर में जहां 29 संस्थान ही डीम्ड यूनिवर्सिटी बने थे, वहीं पिछले 18 साल में 93 और बन गए. इतना ही नहीं, केवल पिछले नौ सालों में ही विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) और मानव संसाधन विकास मंत्रालय की मेहरबानी से 95 संस्थानों को डीम्ड का दर्जा दिया गया, जिनमें से लगभग सभी मेडिकल कॉलेज या विश्वविद्यालय हैं. इनमें से 40 एनडीए के शासनकाल (1991-2004) में बने तो बाक़ी 50 मनमोहन सिंह की पिछली सरकार के दौरान बने. यूजीसी के आंकड़ों के मुताबिक दिसंबर 2008 तक देश भर में कुल डीम्ड यूनिवर्सिटी की संख्या 122 तक पहुंच चुकी थी. ये आंकड़े 1956 से इसलिए शुरू किए गए हैं, क्योंकि यूजीसी इसी साल अस्तित्व में आया था. ज़ाहिर है, सरकारी सर्टिफिकेट से कुकुरमुत्ते की तरह उग रही शैक्षणिक संस्थाओं को मान्यता मिल जाती है और वे शिक्षा के बाज़ार में मनमानी लूट की हकदार बन जाती हैं. यही कारण है कि डीम्ड यूनिवर्सिटी कही जाने वाली इन संस्थाओं में कैपिटेशन फीस के नाम पर छात्रों का जमकर आर्थिक शोषण हो रहा है. शिक्षा के बाज़ार में यह खुला सौदा है कि एक से दस लाख रुपये देकर इंजीनियरिंग कोर्स में दाख़िला मिल जाता है. जबकि एमबीबीएस कोर्स के लिए 20 से 40 लाख रुपये और डेंटल कोर्स के लिए पांच से 12 लाख रुपये देने पड़ ही इन संस्थाओं में दाख़िला मिलता है. और तो और, आर्ट साइंस के पाठ्यक्रमों में 30 से 50 हजार रुपये तक वसूल लिए जाते हैं. तमिलनाडु के दो मेडिकल कॉलेजों का मामला अभी पकड़ा गया है. इस विवाद के बाद मानव संसाधन मंत्रालय ने डीम्ड यूनिवर्सिटी के तमाम नए प्रस्तावों पर रोक लगा दी है. साथ ही कैपिटेशन फीस को लेकर फंसे श्री रामचंद्र यूनिवर्सिटी और श्री बालाजी मेडिकल कॉलेज के ख़िलाफ़ जांच भी बैठा दी है. इस मामले में सूचना प्रसारण राज्य मंत्री एस. जगतरक्षकन पर भी आरोप लगे हैं. कहा गया है कि श्री बालाजी मेडिकल कॉलेज जिस भारत विश्वविद्यालय के तहत चल रहा है, मंत्री महोदय उसके कुलपति हैं. यह दूसरी बात है कि जगतरक्षकन ने इससे इंकार किया है. बहरहाल, यह तो जांच से ही...





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आडवाणी जी, पार्टी को बचाने के लिए संन्यास ले लीजिए

भाजपा में नेताओं की लड़ाई और गुटबाजी सचमुच गहरा गई है. यशवंत सिन्हा, जसवंत सिंह और अरुण शौरी ने ऐसा राग छेड़ दिया है कि आडवाणी गुट की हवा ही निकल गई है. विरोध करने वाले नेताओं की बातों में तर्क है, जिसका जवाब आडवाणी और पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह के पास नहीं है. चुनाव के दौरान हुई ग़लतियों पर सवाल खड़े करने वाले नेता उन बातों को सामने लाए हैं जिससे आज भाजपा का हर कार्यकर्ता बावस्ता है. यही वजह है कि यशवंत सिन्हा के इस्तीफे का जवाब अरुण जेटली ने अपने इस्तीफे से दिया है. शह और मात के खेल में अरुण जेटली ने राजनीति की एक शानदार चाल चली है. इस खेल में नुकसान स़िर्फ भाजपा का होने वाला है. भाजपा के कई नेता मानते हैं कि अंदरूनी कलह के केंद्र में आडवाणी हैं. उनको आगे रख कर भाजपा के कुछ नेता अपना खेल कर रहे हैं. उनका मानना है अगर इस नाज़ुक व़क्त में आडवाणी जी संन्यास ले लें तो पार्टी इन झगड़ों को निपटा कर मज़बूत बन सकेगी. भाजपा में आज हर नेता अपने प्रतिद्वंद्वियों पर निशाना साध रहा है. चुनाव में हार-जीत होती रहती है, यह कोई नई बात नहीं है. हार को पचाना एक बड़ी बात है. हालांकि भाजपा जिस तरह चुनाव लड़ी, जिस तरह बड़े-बड़े नेताओं को दरकिनार किया गया, जिस तरह बंद और एयरकंडीशंड कमरों में चुनाव से जुड़े फैसले लिए गए, जिस तरह ज़मीनी कार्यकर्ताओं का अपमान हुआ, जिस तरह पुराने नेताओं की अवमानना हुई, जिन नेताओं और सलाहकारों की वजह से भाजपा हारी और उनको पुरस्कृत किया गया, तो विरोध के स्वर तो उठने ही थे. भाजपा के साथ मुश्किल यह है कि पार्टी के पास ज़मीनी नेता ही नहीं बचा. आइए, अब पहले एक नज़र डालते हैं कि चुनाव के बाद ऐसा क्या हुआ जिससे भाजपा नेताओं को सार्वजनिक तौर पर पार्टी के ख़िलाफ़ बोलना पड़ा. चुनाव परिणाम आने के अगले ही दिन से आरोप-प्रत्यारोपों का दौर शुरू हो गया. सबसे पहले, पार्टी के रणनीतिकार और आडवाणी की सलाहकारों की टोली के प्रमुख अरुण जेटली और सुधींद्र कुलकर्णी सामने आए. इन लोगों ने मीडिया का इस्तेमाल पार्टी की हार का विश्लेषण करने में किया. अपने बयानों और लेखों में ख़ुद की ज़िम्मेदारी को दरकिनार कर वे हार का दोष दूसरों पर मढ़ने लगे. आडवाणी के प्रमुख सलाहकार और चुनाव रणनीतिकार कुलकर्णी ने एक अंग्रेजी अख़बार में लिख दिया कि इस चुनाव में आडवाणी एक विजेता का तेवर नहीं दिखा सके. अगर आडवाणी ने चुनाव से पहले कुछ कठोर फैसले ले लिए होते तो शायद भारतीय जनता पार्टी की स्थिति ऐसी नहीं होती. इसके बाद एक दूसरे अख़बार में सुधींद्र कुलकर्णी ने फिर एक लेख में भाजपा...

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बदले-बदले से हैं मनमोहन

रूबी अरुण


वे दिन गए जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की छवि कमज़ोर और दब्बू नेता की हुआ करती थी। मनमोहिनी मुस्कान और भींचे होठ ही उनकी पहचान थी। आज मनमोहन का अंदाज़-ए-बयां कुछ बदला हुआ सा है। वह अब खुलकर नीतिगत ़फैसले लेने लगे हैं। मनमोहन न स़िर्फअपनी बल्कि अपने मंत्रिमंडलीय सहयोगियों की ज़िम्मेदारियां भी तय करने लगे हैं। अब प्रधानमंत्री पहले की तरह लिखा हुआ भाषण नहीं पढ़ते. उन्हें अपने मन की भाषा बोलनी आ गई है. यही वजह है कि अपनी दूसरी पारी में संसद में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव में भाग लेते समय मनमोहन ने कोई लिखित भाषण नहीं पढा. वही कहा, जो उन्हें वाजिब लगा. विनम्र, मृदुभाषी प्रधानमंत्री के तेवर इन दिनों ज़रा सख़्त दिखने लगे हैं. उनके क़रीबी मित्र और सहयोगी उनके इस अंदाज़ से ख़ासे चकित हैं. अमूमन ख़ामोश रहने वाले मनमोहन सिंह अब अपने बेहद ख़ास सहयोगियों से भी सवाल करते दिख रहे हैं. न स़िर्फ सवाल बल्कि चेतावनी भी देते हैं. बंद कमरों में लिए गए निर्णय लालफीताशाही की भेंट न चढ़ें, इसकी ख़ातिर जनता और देश से जुड़े सभको सूचना के अधिकार क़ानून के तहत अब आम किया जा रहा है. इससे एक तो लोगबाग इस बात से वाक़िफ हो रहे हैं कि सरकार उनके लिए क्या कर रही है. दूसरे, इसके ज़रिए सरकार अपनी और सहयोगियों की जवाबदेही भी तय कर रही है. प्रधानमंत्री कार्यालय से इस बार कोई आदेश मौखिक नहीं दिया जा रहा . हर निर्देश काग़ज़ पर दिया जाता है, ताकि जवाबदेही से बचने या मुकरने की कोई ग़ुंजाइश ही न रहे. मनमोहन के इस रवैए की वजह उनके सहयोगी समझने की जुगत में हैं. दरअसल यह भारी जनादेश से मिली ज़िम्मेदारी है, जिसे निभाने का प्रयत्न किया जा रहा है. सरकार बनते ही मनमोहन सिंह ने एक पत्र अपने मंत्रिपरिषद के सभी सहयोगियों को भेजा. कैबिनेट सचिवालय ने यह चिट्‌ठी पब्लिक इनवेस्टमेंट बोर्ड, एक्सपेंडिचर फाइनेंस कमेटी सहित कई अन्य विभागों को भी भेजी. इसमें सभी को यह निर्देश दिया गया था कि सभी विभागों और मंत्रालयों द्वारा लिए ़फैसलों की सूचना तुरंत प्रधानमंत्री कार्यालय को दी जाए. यानी कि हर मंत्री, हर विभाग जो भी ़फैसला ले उसकी एक प्रति तुरंत प्रधानमंत्री कार्यालय को भेजी जाए. जबकि पहले होता ऐसा था कि अगर कोई भी ़फैसला एक से अधिक मंत्रालय या विभाग मिल कर लेते थे तो उनके बीच सामंजस्य करने की गरज से उसकी सूचना प्रधानमंत्री कार्यालय को दी जाती थी. अब प्रधानमंत्री अपने सहयोगियों के हर ़फैसले से सीधे वाक़ि़फ होना चाहते हैं.

पंजाब और हरियाणा भी नक्सलियों के निशाने पर?

संजीव पांडेय


क्या पंजाब और हरियाणा भी अब नक्सलियों के निशाने पर है? यह सवाल हाल ही में हरियाणा में कुछ नक्सलियों की गिरफ़्तारी से पैदा हुआ है. गिरफ्तार नक्सिलयों ने जो खुलासे किए हैं, वे बेहद विस्फोटक हैं. वहीं पंजाब के मानसा जिले में शामलात ज़मीन पर एक वामपंथी संगठन के क़ब्ज़े के प्रयास ने राज्य पुलिस की नींद उड़ा दी है. इसके बाद कई लोगों की गिरफ़्तारी भी हुई है. हाल ही में संपन्न हुए लोकसभा चुनाव में कुछ वामपंथी संगठनों द्वारा दोनों राज्यों के कुछ चुनावी क्षेत्रों में चुनाव बहिष्कार की अपील के बाद मामला गंभीर होता नज़र आ रहा है. हालांकि हरियाणा में हुई गिरफ़्तारी को कुछ संगठन पूरी तरह से ग़लत भी ठहरा रहे हैं. उनका मानना है कि राज्य पुलिस ने जानबूझ कर कुछ नौजवानों को नक्सली बताकर गिरफ़्तार किया है. उधर पंजाब पुलिस इंटेलिजेंस ने चुनावी बहिष्कार से संबंधित पर्चे लगाए जाने की रिपोर्ट पुलिस मुख्यालय को भेजी है. अगर उनकी रिपोर्ट पर ही भरोसा किया जाए तो राज्य में इस समय नक्सली विचारधारा वाले 30 संगठन सक्रिय हैं.हरियाणा पुलिस ने 20 अप्रैल से 5 जून 2009 के बीच राज्य में अलग-अलग जगहों पर कथित तौर पर 17 नक्सलियों को गिरफ़्तार किया है. इनमें हरियाणा माओवादी संगठन के इंचार्ज डॉ. प्रदीप कुमार भी हैं. पुलिस ने उनकेपास से देसी रिवाल्वर, 315 बोर के तीन पिस्टल और एक ग्रेनेड और चार डेटोनेटर की बरामदगी भी दिखाई है. पुलिस का दावा है कि हाल ही में संपन्न हुए लोकसभा चुनावों केदौरान यमुनानगर के छछरौली क्षेत्र में चुनाव बहिष्कार के पोस्टर भी इन लोगों ने ही लगाए थे. उल्लेखनीय है कि गिरफ़्तार कुल 17 लोगों में से आठ को यमुनानगर पुलिस की स्पेशल टीम ने गिरफ़्तार किया है. पुलिस का दावा है कि इनमें से कुछ लोगों ने झारखंड जाकर प्रशिक्षण लिया है. ये सीधे तौर पर सीपीआई-एमएल से जुड़ कर काम कर रहे हैं.उधर कुछ संगठनों ने हरियाणा में हुई इस गिरफ़्तारी को ग़लत ठहराया है. पीयूडीआर और पीयूसीआर से जुड़े पंजाब एवं हरियाणा...




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यूपी में मंत्री से बड़ा होता है नौकरशाह!

अजय कुमार


मंत्री तो आते-जाते रहते हैं, लेकिन नौकरशाह हमेशा अपने पदों पर विराजमान रहते हैं. नौकरशाही की तुलना अक्सर घोड़े से की जाती है. कल्याण सिंह जब मुख्यमंत्री थे, तब एक बार उन्होंने यहां तक कह डाला था कि नौकशाही रूपी घोड़े को वह ही काबू में रख सकता है जिसकी रानों में ताक़त और लगाम को अपने ढंग से खींचने की क्षमता हो. ग़ौरतलब है कि नौकरशाही पर कल्याण सिंह की पकड़ की चर्चा काफी दिनों तक रही थी. यह बात दूसरी है कि कुसुम राय के बीच में आ जाने पर यह पकड़ कुछ ढीली हो गई थी. पूर्व मुख्यमंत्री स्वर्गीय वीर बहादुर सिंह की भी नौकरशाही पर जबर्दस्त पकड़ थी. वह नौकरशाहों को ‘पेपर वेट’ की तरह जैसे चाहते घुमाते-फिराते थे, लेकिन उनकी विरासत संभाले उनके पुत्र और वन मंत्री फतेह बहादुर सिंह को पिता के ऩक्शे क़दम पर चलना महंगा पड़ गया. मंत्री जी को नसीहत देने के लिए एक नौकरशाह ने ऐसा रास्ता चुना, जिससे मंत्री जी की न केवल जनता के सामने फजीहत हो गई, बल्कि वह उफ भी नहीं कर पाए. पूरा मामला इस प्रकार है.पिछले दिनों जिला महाराजगंज के पनियरा विधानसभा क्षेत्र के विधायक और मंत्री फतेह बहादुर सिंह क्षेत्र के दौरे पर गए हुए थे. वहां उन्हें बसपा कार्यकर्ताओं ने घेर लिया. कार्यकर्ताओं की एक ही शिकायत थी कि मंडलायुक्त पी.के मोहंती कार्यकर्ताओं की नहीं सुनते हैं, जिस कारण जनता के सामने उन्हें शर्मिंदगी उठानी पड़ती है. कार्यकर्ताओं ने मंत्री जी को यहां तक बताया कि मंडलायुक्त के घनिष्ट संबंध लखनऊ के पंचम तल में बैठने वाले कई उच्च अधिकारियों से हैं, जिस कारण वे बेलगाम हो गए हैं. फतेह बहादुर सिंह कार्यकर्ताओं का हमेशा ख़याल रखते हैं. उन्हें यह बात असहज लगी. उन्होंने तुरंत मंडलायुक्त मोहंती को फोन लगा दिया. मोहंती ने मंत्री जी के फोन को कोई तवज्जो नहीं दी. यह बात फतेह बहादुर सिंह को काफी नागवार गुज़री. उन्होंने मुख्यमंत्री से इस नौकरशाह की शिकायत करने का मन बनाया तो उनके ही कुछ सहयोगी मंत्री उन्हें हतोत्साहित करने लगे. उन्होंने एक सर्वसमाज के मंत्री और दलित नौकरशाह (जिलाधिकारी) से जुड़ा किस्सा भी सुना दिया. बात ज़्यादा पुरानी नहीं थी, इसलिए सबके दिलो-दिमाग़ में ताज़ा थी. माया कैबिनेट के इस मंत्री की किसी बात पर उस दलित नौकरशाह से मनमुटाव हो गया. इस नौकरशाह को जब मंत्री जी ने अपने अर्दब में लेने की कोशिश....


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कश्मीर पर अमेरिका का सुझाव पागलपन है


आप अगर आर्सेनिक बेचना चाहते हैं, तो इसका सबसे आसान और उदार तरीक़ा इसे चीनी से लिपटे हुए दवा की तरह बताना होगा. कश्मीर की जनता के घावों पर मरहम लगाने के लिए सुझाई गई अंतरिम राहत में भी कुछ ख़ास नया नहीं है. नियंत्रण रेखा के दोनों ओर असैन्यीकरण की बात भी नई नहीं है. अनूठी बात तो यह है कि वाशिंगटन के द्वारा पाक समर्थित इस अभियान का जबर्दस्त समर्थन किया जा रहा है. बात यहीं ख़त्म नहीं होती. एक कूटनीतिज्ञ के लिए जो बात असामान्य मानी जाएगी और जो तटस्थता को प्रभावित कर सकती है, ऐसी ही उलटबांसी में विलियम बर्न्स (अमेरिका के राजनीतिक मामलों के उपमंत्री) ने दिल्ली को एक ऐसा संदेश देने की जगह के रूप में चुना, जिससे उनके मेजबान चिंतित होते. बर्न्स ने कहा कि कश्मीर के समाधान के लिए सबसे ज़रूरी है कि वहां की जनता को विश्वास में लिया जाए. इससे ज़ाहिर तौर पर इस्लामाबाद को दिली ख़ुशी हुई होगी. असैन्यीकरण की बात काफी तार्किक और मीठी लगती है.यह ज़ाहिर तौर पर सेना को कम करने का एक रास्ता भी है. ओबामा प्रशासन इस समांतर ़फायदे की संभावना से बेहद ख़ुश है. इससे तालिबान के ख़िला़फ युद्ध में अधिक पाक सैनिकों की भागीदारी निश्चित हो सकेगी. पाकिस्तान ने भारतीय सीमा से कुछ सैन्य ब्रिगेडों को तो हटाया है, लेकिन नियंत्रण रेखा पर वही स्थिति है. अपने स्वार्थ की वजह से वाशिंगटन ने इस तथाकथित तार्किक संगठन की भूल की तऱफ से आंखें मूंद ली हैं. कश्मीर को लेकर हुए तीन बड़े युद्धों-1947, 1965 और कारगिल-में पाकिस्तान ने द्विस्तरीय रणनीति अपनाई. एक छद्म सेना का इस्तेमाल पहली पांत के रूप में किया गया. पाकिस्तान इनके लिए इस्तेमाल करनेवाला शब्द हमेशा एक ही रखता है. वे स्वतंत्रता सेनानी के दिखावे में आते हैं. भारत ने 1947 और 1965 में उनके लिए छापामार शब्द का इस्तेमाल किया और अब उनको आतंकी कहता है. यह छद्म सेना कश्मीर के अलावा भी सक्रिय है, इसका पता इसी से चलता है कि मुंबई के आतंकी हमले में पाकिस्तान का उपयोग साबित हो चुका है. असैनिक क्षेत्र पाकिस्तान की सुरक्षा को तय करने के साथ ही भारतीय प्रतिरक्षा को कमज़ोर करेंगे. इसकी वजह यह है कि ऐसा कोई संकेत नहीं दिया गया है कि आतंकी सेना को भी शस्त्रहीन किया जाएगा. तो क्या भारतीय सेना को कश्मीर घाटी को केवल संगठित, बेहद प्रशिक्षित और धन से लैस आतंकी संगठनों की दया पर छोड़ देना चाहिए? भारत के पास ऐसी कोई छद्म सेना नहीं है, क्योंकि यह यथास्थिति को बनाए रखना चाहता है. यह किसी भी पड़ोसी के इलाके पर कोई दावा नहीं करता. अगर अमेरिका भारत में असैनिक क्षेत्र चाहता है...
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ग्लैमर की स्याह दुनिया

अनंत विजय

हाल के दिनों में भारतीय अंग्रेजी लेखकों की अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर काफी चर्चा हुई. चाहे वह काव्या विश्वनाथन पर दूसरे अंग्रेजी लेखकों के उपन्यास अंश उड़ाने पर उठा विवाद हो या किरण देसाई और अरविंद अडिगा का बुकर से सम्मानित होना. विक्रम चंद्रा के सेक्रेड गेम्स को भी विदेशों में ख़ासी लोकप्रियता मिली. पत्रकार सागरिका घोष की किताब ब्लाइंड फेथ को भी न केवल पाठकों ने पसंद किया, बल्कि आलोचकों ने भी कुंभ मेले को केंद्र में रखकर लिखी इस किताब को ख़ूब सराहा. इन सबके बीच युवा फिल्म निर्देशक राजश्री का पहला उपन्यास- ट्रस्ट मी (रूपा एंड कंंंं.)- भी पाठकों को ख़ूब भाया. अगर प्रकाशक की मानें तो राजश्री की इस किताब की चंद महीनों में पच्चीस हज़ार से ज्यादा प्रतियां बिक गईं.राजश्री मूलत: फिल्मकार हैं, जिसने पुणे के फिल्म संस्थान से निर्देशक का कोर्स करने के बाद बॉलीवुड में क़दम रखा. राजश्री द्वारा लिखी और निर्देशित पहली फिल्म द रैबेल को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला. फिल्म राजश्री के लिए एक पैशन है. किताब पर लेखिका के परिचय में लिखा है कि वह बचपन से ही फिल्मों की दीवानी थी. शोले फिल्म की टिकट लेने के लिए वह पांच घंटे तक लाइन में खड़ी रही थीं. राजश्री का दो सौ पन्नों का यह उपन्यास एक रोमांटिक कॉमेडी है. यह उपन्यास बॉलीवुड और विज्ञापन की ग्लैमरस दुनिया का विश्वसनीय, समृद्ध और संवेदना का प्रमाणिक सा लगता चित्र उकेरती है. इस उपन्यास की मुख्य पात्र पार्वती है, जो अपनी और अपने मां के सपने के साथ महाराष्ट्र के एक शहर अमरावती से मुंबई पहुंचती है. पार्वती को एक विज्ञापन एजेंसी में नौकरी मिलती है, जहां वह एक कैमरामैन करण पर फिदा हो जाती है. इश्क़ इतना गहरा जाता है कि दोनों के बीच की सारी दीवारें टूट जाती हैं. करण और पार्वती की आशिक़ी पर तब ब्रेक लगता है, जब पता चलता है कि वह गर्भवती है. मारे ख़ुशी के पार्वती के पांव ज़मीन पर नहीं पड़ रहे होते हैं और वह हवा में उड़ती हुई अपने आशिक़ करण के पास पहुंचती है. उसकी बांहों में समा कर उसे यह ख़ुशख़बरी देती है. लेकिन करण न तो इस प्यार को लेकर गंभीर था और न ही उसके लिए इस रिश्ते की कोई भावनात्मक अहमियत थी. उसके लिए तो पार्वती एक नारी देह मात्र थी, जिसे वह भोग रहा था. इसलिए जब पार्वती ने उसे अपने गर्भवती होने की ख़ुशख़बरी दी तो उसने बहुत ही ठंढेपन से कहा कि-बच्चा गिरा दो. सन्न रह गई पार्वती ने लाख विरोध किया, डराया-धमकाया, आरजू-मिन्नतें कीं, लेकिन करण ने तो...

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ग़रीबों के रहनुमा थे वीपी

अशोक कुमार सिन्हा

जब सामाजिक जीवन विचार-केंद्रित, सार्थक परिवर्तन- परिचालित न हो, जन आंदोलन रहित हो जाए, ताक़तवर लोगों की सरपरस्ती के तहत ही जीने की मजबूरी हो, लोकतंत्र के विकास के लिए न कोई आकांक्षा हो न तैयारी, व्यापक असमानता, कुव्यवस्था, बेरोज़गारी ही संरचना का चरित्र हो जाए, रजनीति का अकेला अर्थ हो जाए सत्ता के ज़रिए धन का संग्रह- वैसे समय में वीपी सिंह जैसे इतिहास पुरुष की याद आनी स्वाभाविक है, जो कुछ माह पूर्व ही हमसे जुदा हो गए हैं.अंग्रेजों का जमाना था. उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद तहसील की दो रियासतें थीं- डैया और मांउा. विश्वनाथ प्रताप सिंह का जन्म इसी डैया के राजघराने में 25 जून, 1931 को हुआ था. बचपन का लालन-पालन अपनी मां की गोद में यहीं हुआ, लेकिन अपने मूल पिता के परिवार में बालक विश्वनाथ का रहना पांच वर्ष तक ही हुआ. डैया के बगल की रियासत मांडा के राजा थे राजा बहादुर राम गोपाल सिंह. वह नि:संतान थे. अपनी राज परंपरा चलाने के लिए उन्होंने बालक विश्वनाथ के माता-पिता की सहमति से उन्हें गोद ले लिया. फिर तो विश्वनाथ ने पीछे नहीं देखा. गंभीरता से पठन-पाठन में जुट गए. परिणामस्वरूप हाईस्कूल तक कई विषयों में उत्कृष्टता मिली. बाद में वह बनारस के उदय प्रताप सिंह कॉलेज में पढ़ने आए. वहां अच्छे छात्र की पंक्ति में थे विश्वनाथ. प्रिंसिपल ने उन्हें प्रीफेक्ट बनाया. तब तक भारत को आज़ादी मिल चुकी थी. विश्वनाथ की मसें भी भींग रही थीं. विश्वनाथ ने छात्र संघ गठित करने की मांग रखी. अध्यक्ष पद के लिए प्रिंसिपल का एक लाड़ला छात्र खड़ा हुआ. उसे गुमान था कि वह प्रिंसिपल का उम्मीदवार है. प्रतिरोध व्यवस्था में पक्षपात के ख़िला़फ विश्वनाथ के कान खड़े हुए. आजीवन इस्तीफों से मूल्यों को खड़ा करने वाले, ग़लत का प्रतिरोध करने वाले भावी वीपी का यही उदय था. बस क्या था, प्रीफेक्ट पद से इस्तीफा दे दिया. उनकी ज़िंदगी का पहला इस्तीफा हुआ यह. समान विचारों के छात्रों ने संघ के अध्यक्ष पद के लिए उन्हें खड़ा कर दिया. युवा कांग्रेस का आग्रह टालकर वह स्वतंत्र उम्मीदवार बने और प्रिंसिपल के उम्मीदवार को हराकर जीत गए. वोट को आकृष्ट करने की क्षमता का यही बुनियादी अनुभव बना वीपी का. राजनीति इसी अंतराल में इनका विषय बनी. उनके व्यक्तित्व में दो ध्रुव थे. वैज्ञानिक बनने की और सामाजिक कार्यों से मान्यता की मंशा थी. चित्रकारी सामाजिक ध्रुव का हिस्सा थी. इन ध्रुवों के बीच कोई महत्वकांक्षा नहीं थी. इसी के बीच एक ठोस वीपी का उदय हुआ. 24 साल वर्ष की आयु में वह राजनीति की तऱफ संयोगवश मुखातिब हो गए. यहां भी वोट की राजनीति की कल्पना नहीं थी. 1955 में कांग्रेस के चवन्निया सदस्य बने, 24 साल की उम्र में. कांग्रेस में आने का विचार इतर था-सत्ता में हिस्सेदारी नहीं. अपने इलाक़ेके साधारण आदमी की सुनवाई जो नहीं हो रही थी, वही उनकी राजनीति का कालांतर में केंद्र बना.वीपी तन-मन से कांग्रेस की राजनीति में आ गए...
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अहमदीनेज़ाद की जीत से नाख़ुश हुआ अमेरिका

राहुल मिश्र

महमूद अहमदीनेज़ाद चार साल और ईरान के राष्ट्रपति बने रहेंगे. यह ईरान की जनता ने तय कर दिया है, लेकिन यही बात अमेरिका समेत इज़राइल और कुछ अरब देशों को हज़म नहीं हो रही है. अमेरिका में सत्ता परिवर्तन के बाद राष्ट्रपति बने बराक हुसैन ओबामा ने ईरान के साथ संवाद की संभावनाएं तलाशने के वायदे तो किए, लेकिन ईरान के चुनाव को देखते हुए ओबामा ने उस पर रोक लगा दी. चुनाव के नतीजे आने के बाद अमेरिका ने सबसे पहले चुनावों में धांधली की संभावना व्यक्त कर दी. अमेरिकी बयान से यह पुख्ता हो गया कि उसे ईरान चुनावों में इस नतीजे की उम्मीद नहीं थी.
दरअसल, अमेरिका को आशा थी कि चुनाव के नतीजे संवाद की शर्तों पर असर डाल सकते हैं. लिहाजा, परिणामों का इंतज़ार करने में ही भलाई है. इस आशा के पीछे एक अमेरिकी रणनीति छिपी थी. अमेरिका को भरोसा था कि ईरान की जनता 2005 के राष्ट्रपति चुनावों में की गई ग़लती को नहीं दोहराएगी. वह इस बार सुधारवादी ताक़तों को मज़बूत करेगी और अहमदीनेज़ाद के साथ-साथ कट्टरपंथी शासकों को सबक़ सिखाएगी. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. ईरान के सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 12 जून को 85 फीसदी मतदान हुआ. 62.6 फीसदी वोटों के साथ अहमदीनेज़ाद ने अपने प्रतिद्वंद्वी मीर हुसैन मौसवी(33.75 फीसदी) को हराकर जनता से अगले चार साल तक के लिए अपनी नीतियों को लागू रखने पर फिर मुहर लगवा ली.
इससे तो यही साफ होता है कि अमेरिका को नागवार लगने वाले मुद्दे मध्य एशिया की राजनीति पर छाए रहेंगे. ईरान में अगले चार सालों तक इस्लामिक क्रांति की लौ जलती रहेगी. ईरान में किसी तरह से भी सत्ता में बदलाव की ओबामा की उम्मीद खत्म हो गई. एक बार फिर ओबामा को यह साबित करना होगा कि ईरान में सत्ता परिवर्तन को जनता के द्वारा नकार दिए जाने के बाद, इस्लामिक देशों के साथ शुरू की गई पहल किस हद तक कारगर साबित होगी. इसके अलावा भी कई अहम सवालों के जबाव इस परिस्थिति में अमेरिका को तलाशने होंगे, मसलन, ईरान के परमाणु कार्यक्रम को रोकने में क्या अमेरिका सफल होगा. इज़राइल की सुरक्षा को सुनिश्चित करने का आश्वासन ज़ारी रहेगा और सबसे अहम क्या अमेरिका मध्य एशिया में शांति प्रक्रिया को दोबारा शुरू करके मध्य एशिया में वर्चस्व की दौड़ पर लगाम लगा पाएगा. इसके साथ ही क्या मध्य एशिया में अमेरिकी प्रासंगिकता बनी रहेगी.
यह सब कैसे हो गया. अमेरिका जो चाहता था वह क्यों नहीं हो पाया. दरअसल, अमेरिकी प्रशासन को मिल रही जानकारियों के मुताबिक, ईरान में अहमदीनेज़ाद के खिलाफ जनता में काफी असंतोष था. पिछले तीस सालों में इस वर्ग ने तरक्की की और तकनीकी क्रांति को क़रीब से देखा. ईरान में ज़ारी इस्लामिक बंदिषों के खिलाफ यह वर्ग शुरू से ही आवाज़ उठाता रहा, यहां तक की 2005 के राष्ट्रपति चुनावों का इस वर्ग ने बहिष्कार भी किया था. कट्टरपंथियों के खिलाफ खडे इस वर्ग को ईरान में वह अधिकार चाहिए जो किसी भी पष्चिमी देशों के नागिकों को मुहैया है. उन्हें ईरान सरकार के तथाकथित नैतिकतावादी रवैए (मोरल पोलिसिंग) से खासी नाराज़गी है और इनके साथ महिलाओं को भी अपनी स्वतंत्रता की दरकार है. यह ईरान का वह तबका है जो अमेरिका और पश्चिमी देशों के साथ बेहतर संबंधों की दरकार रखता है.
अहमदीनेज़ाद के खिलाफ चुनाव लड़ रहे मीर होसैन मौसवी के चुनाव प्रचार और रैलियों को पश्चिमी मीडिया अंतर्राष्ट्रीय खबर बना रहा था. दुनियाभर में यह ख़बर आम हो रही थी कि अहमदीनेज़ाद को ईरान की जनता नकार देगी. पिछले तीस सालों से दबी कुचली ईरानी जनता लोकतंत्र के पश्चिमी मानकों को पाने की कोशिश में रूढ़िवादी और कट्टरपंथी इस्लामिक गणराज्य को एक करारा झटका देने वाली है. ईरान के मतदाता 2005 के राष्ट्रपति चुनावों में की गई वही गलती नहीं दोहराएंगे जिसमें इस्लामी गणराज्य के विरोध में युवाओं और सुधारवादी ताकतों ने लामबंदी करके चुनावों का बहिष्कार कर दिया था और नतीज़तन अहमदीनेज़ाद सत्ता पर काबिज़ हो गए थे. वहीं अमेरिकी मीडिया अहमदीनेज़ाद को एक अभद्र नेता के तौर पर पेश करता रहा. अमेरिका के एक चर्चित टैबलॉयड ने तो हमेशा अहमदीनेज़ाद को एक एविल मैडमैन से संबोधित किया, और चुनावों के ठीक पहले तो इस टैबलॉयड ने उन्हें बंदर और बौने तक की संज्ञा दे दी...

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जाति व्यवस्था कैसे जन्मी?

व्यालोक

सनातन धर्म का जो वर्तमान स्वरूप हम देखते हैं, जाति-व्यवस्था को जो निंदनीय स्वरूप हमारे जीवन में ज़हर घोल रहा है, उसकी शुरुआत कैसे हुई, यह एक रहस्य ही है. काफी मगजपच्ची के बावजूद इस बात का कोई निश्चित प्रमाण नहीं मिलता कि जाति-प्रथा कैसे, किनके द्वारा और क्यों अस्तित्व में आई.ऋग्वेद में केवल तीन वर्णों का उल्लेख है. इसमें ब्रह्मन और क्षत्र शब्द तो आए हैं, लेकिन वैश्य या शूद्र शब्द का इस्तेमाल नहीं किया गया है. वैदिक काल में भारतीय प्रजा के लिए हरेक जगह विश शब्द का इस्तेमाल हुआ है, जिसका अर्थ बसने वाला होता है. कालांतर में शायद यही वैश्य शब्द में बदल गया. हां, पुरुष सूक्त में एक बार राजन्य और एक ही बार शूद्र शब्द का इस्तेमाल हुआ है, लेकिन उसे तो विद्वान क्षेपक मानते हैं. सवाल फिर से वही उठता है कि आखिर जाति-प्रथा की शुरुआत कैसे हुई? इसके पीछे एक तर्क तो यह समझ में आता है कि जब भारत में आर्यों का आर्येतर जातियों से संपर्क हुआ तो समाज को एक व्यवस्था देने के लिए जातिगत सोपान बनाए. अचरज की बात यही रही कि बाद में वर्ण-व्यवस्था के अंदर से सैकड़ो जातियां बन गईं. विद्वानों का मत है कि सांस्कृतिक रूप से जो जातियां या लोग पिछड़े थे, उनको ही आर्यों ने शूद्र की संज्ञा दे दी. जाति का विभाजन मनु ने बिल्कुल कठोर कर दिया. वैदिक काल में तो यह व्यवस्था बेहद लचीली थी. यहां तक कि महाभारत में कर्ण का यह संवाद भी है कि वाह्लीक देश (आज का पंजाब) में ब्राह्मण ही शूद्र और नापित बनते हैं औऱ इसका उल्टा भी होता है. ज़ाहिर है कि वैदिक काल में एक वर्ण से दूसरे वर्ण में अतिक्रमण भी खूब होता था. इसका उदाहरण हम पिछले अंक मेंही दे चुके हैं. आर्यों ने जाति-प्रथा का सहारा शायद इसी वजह से लिया कि उनको विविध संस्कृतियों के लोगों को समाज में उनकी सभ्यता के मुताबिक जगह देनी थी. जातिवाद के जरिए समाज में कई दीर्घाएं बनाई गईं, जो अलग संस्कृति और आचार के लोगों को सामाजिक संरचना में जगह मुहैया कराती थीं.यहां द्रविड़ जाति के लोग थे, जो आचार-विचार और संस्कृति के स्तर पर...





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