चौथी दुनिया पढ़िए, फैसला कीजिए

शुक्रवार, 25 दिसंबर 2009

मुस्लिम आरक्षण का भविष्य?

मनीष कुमार
रंगनाथ मिश्र कमीशन रिपोर्ट की अनुशंसाओं को लागू करने के मसले पर देश में मौक़ापरस्त सियासत की जो फिज़ां बनी है उससे एक बात तो सा़फ है कि सियासी दलों के लिए देश का दलित मुसलमान उसकी बिसात का बस एक मोहरा है और उनके हक़ ओ ह़ूकूक़ की बात महज़ एक सियासी चाल. इस बहाने सियासतदानों की चाल और चरित्र दोनों सामने हैं.
मुसलमानों और ईसाइयों के आरक्षण के मुद्दे पर हर पार्टी में भ्रम की स्थिति है. इसमें कई पेंच हैं. सबसे बड़ा सवाल यह है कि उन्हें आरक्षण किस कोटे से दिया जाएगा?
इतिहास में ऐसे मौ़के कम ही आते हैं, जब किसी अ़खबार की वजह से सरकार को वह करने को मजबूर होना पड़ता है, जिसे वह किसी भी हाल में करना नहीं चाहती. रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट संसद में पेश होने की घटना सरकार की कुछ ऐसी ही मजबूरी को ज़ाहिर करती है. सरकार के पास रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट २२ मई २००६ से थी. उसने इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया था. मामला दलित मुसलमानों और दलित ईसाइयों के आरक्षण से जुड़ा होने के कारण विवादास्पद है. सरकार ने चुनावी नुक़सान और फायदे को देखते हुए इसे दबा रखा था. चौथी दुनिया में रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट प्रकाशित होने के बाद संसद में हंगामे का सिलसिला शुरू हो गया. चौथी दुनिया की रिपोर्ट की वजह से लोकसभा और राज्यसभा की कार्यवाही को कई बार स्थगित करना पड़ा. लगभग सभी पार्टी के सांसदों ने जमकर हंगामा किया और लोकसभा एवं राज्यसभा दोनों ही सदनों में चौथी दुनिया अ़खबार लहरा कर सरकार को रिपोर्ट पेश करने को बाध्य कर दिया...


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इंसाफ की आवाज पर पाबंदी

आदियोग
चिंता यह कि ऑपरेशन ग्रीन हंट की धमक ने आदिवासियों को आतंक और असुरक्षा के गहरे अंधेरे में धकेल देने का काम किया है. नतीजा यह कि विस्थापन की भगदड़ बेतहाशा फैल रही है, गांव के गांव उजड़ रहे हैं.

अपनी मर्ज़ी की मालिक हो चुकी सरकारें खुद के गिरहबान में ताकझांक की इजाज़त भला क्यों देंगी? वह क्यों चाहेगी कि उनके कामकाज की चीरफाड़ हो उनकी नीयत की चिंदी-चिंदी उड़े? ज़ाहिर है, वह तो ऐसी हिमाकत को रोकने की हरसंभव कोशिश करेगी और उसे क़ानून व्यवस्था बनाए रखने की कार्रवाई का ही नाम देगी. विकास के लिए शांति चाहिए और उनके लिए शांति का मतलब मरघटी ख़ामोशी से है.
इसी कड़ी में बस्तर का हाल सुनें. दंतेवाड़ा में 14 से 26 दिसंबर तक पदयात्रा का आयोजन तय था. पदयात्रा के बाद सत्याग्रह का सिलसिला शुरू होना था, जिसका समापन अगली सात जनवरी को जन सुनवाई के रूप में होना था. जन सुनवाई में वित्त मंत्री पी चिदंबरम के शामिल होने की भी चर्चा थी. वह ख़ुद भी ऐसी इच्छा रख चुके थे. 14 दिसंबर से सात जनवरी तक का यह कार्यक्रम बस्तर को जंग का मैदान बनने से रोकने के लिए बनाया गया था...


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बुंदेलखंड को राज्य बनाने के नाम पर सियासत

सुरेन्द्र अग्निहोत्री


उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने केंद्र सरकार के लिए नया सिरदर्द पैदा कर दिया है. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पत्र लिखकर उन्होंने बुंदेलखंड और पश्चिमी उत्तर प्रदेश को अलग राज्य बनाने की मांग की. बसपा यह मांग कई सालों से कर रही है. मार्च 2008 में मायावती ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर सभी क्षेत्रों के समुचित विकास के लिए उत्तर प्रदेश को छोटे राज्यों में बांटने की बात कही थी. उन्होंने दोनों क्षेत्रों के लोगों से अपील की कि वे अलग राज्य बनाने की अपनी मांग केंद्र के समक्ष जोरदार तरीके से रखें. मायावती ने कहा कि यदि केंद्र बुंदेलखंड और पश्चिमी उत्तर प्रदेश को अलग राज्य बनाने पर सहमत हो तो वह विधानसभा में इस आशय का प्रस्ताव लाने की कोशिश करें. उन्होंने तर्क दिया कि जनसंख्या और क्षेत्रफल के आधार पर उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य का प्रबंधन करने के लिए इसे बांटना ज़रूरी है.खंड-खंड नहीं, अखंड बुंदेलखंड चाहिए. जब तक हमें पूरा बुंदेलखंड नहीं मिलता है, हमारा संघर्ष जारी रहेगा. यह बात बुंदेलखंड मुक्ति मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजा बुंदेला ने चौथी दुनिया से कही. उन्होंने मायावती के बुंदेलखंड को लेने से इंकार करते हुए कहा कि हमें महाराजा छत्रसाल की सीमाओं वाला बुंदेलखंड चाहिए. 1948 में गृहमंत्री सरदार पटेल के साथ एक मसौदे पर बुंदेलखंड के 35 राजा-रजवाड़ों के साथ समझौता हुआ था....

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वतन के लिए मर—मिटने का जज्बा

राजकुमार शर्मा

देशप्रेम किसी बाज़ार में नहीं बिकता और यह सबको मयस्सर भी नहीं है. यह पवित्र भावना जन्मती है संस्कारों से. आईएमए ने पिछले दिनों ऐसे ही लगभग सवा पांच सौ सैन्य अधिकारी राष्ट्रसेवा में समर्पित किए, जो वतन के लिए किसी भी समय मर-मिटने का जज़्बा लेकर अपने घरों से निकले हैं.

उत्तराखंड की पावन धरती से प्रशिक्षण प्राप्त करके 518 सैन्य अधिकारी राष्ट्रसेवा को समर्पित हुए. मौक़ा था देहरादून में भारतीय सैन्य अकादमी की पासिंग आउट परेड का, जिसमें कुल 536 कैडेटों ने भाग लिया. इनमें 18 विदेशी भी शामिल थे. इस अवसर पर मुख्य अतिथि के रूप में नेपाल के सेना प्रमुख छत्रमान सिंह गुरूंग ने परेड की सलामी ली. उन्होंने कहा कि सैन्य अधिकारी सेना की महान परंपरा को आगे बढ़ाएं. मौजूदा वैश्विक परिस्थितियों में सुरक्षा का सवाल सभी राष्ट्रों के लिए सबसे अहम हो गया है, इसलिए सेना में शामिल हो रहे हर अधिकारी को इस चुनौती का मुक़ाबला करने के लिए हर समय तैयार रहना होगा.
भारतीय सेना की महान परंपरा की सराहना करते हुए गुरूंग ने कहा कि भारतीय सैन्य अधिकारी सतत समर्पित भाव से उत्कृष्ट सेवाओं द्वारा अपनी विरासत की रक्षा करें. त्याग, बलिदान, समर्पण, देशभक्ति और साहस सेना के मूल्य एवं आदर्श हैं. नए सेनाधिकारी अपने साथियों एवं कनिष्ठों के लिए प्रेरणास्रोत बनें. उन्होंने अपने प्रशिक्षण काल के स्वर्णिम दिनों को याद कर भारतीय सैन्य अकादमी को दुनिया की सर्वश्रेष्ठ सैन्य अकादमी बताते हुए इसकी सराहना की...


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यौन पेशे को कानूनी मान्यता देना घातक होगा

बिमल रॉय

जब आप कहते हैं कि यह दुनिया का सबसे पुराना पेशा है और जब आप क़ानून बनाकर इसे ख़त्म कर पाने में अक्षम हैं तो इसे क़ानूनी मान्यता क्यों नहीं दे देते? इससे आप पेशे पर निगरानी रख सकेंगे और इसमें शामिल लोगों का पुनर्वास कर सकेंगे. दिसंबर के पहले सप्ताह में एक मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने यह राय ज़ाहिर की. इससे उन करोड़ों यौनकर्मियों के दिलों में उम्मीद जगी है, जो दिन के उजाले में समाज की हिकारत और रात में पुलिस, गुंडों, दलालों एवं मौसियों की चांडाल चौकड़ी का दंश झेलती हैं.
हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने ही ओलेगा तेलिस बनाम बंबई नगर निगम मामले (1985 एसएससी-3ए 535) में यह फैसला सुनाया था कि कोई भी व्यक्ति जीविका के साधन के रूप में जुआ या वेश्यावृत्ति जैसे अवैध व अनैतिक पेशे का सहारा नहीं ले सकता. इसके बावजूद समलैंगिकता पर आए हाल के फैसले और अब यौन पेशे को क़ानूनी मान्यता देने के पक्ष में सुप्रीम कोर्ट की राय पूरी दुनिया में बदल रही फिजां और बुराइयां रोक पाने में क़ानून की विफलता की ओर इशारा करती है. ज़ाहिर है, कोर्ट की राय से यौन पेशे को क़ानूनी मान्यता देने की बहस फिर शुरू हो गई है. मानवाधिकार संगठनों के साथ-साथ देश के लाखों यौनकर्मी क़ानून बनाने वाली मशीनरी पर दबाव बढ़ाने के लिए सड़क पर उतरने की तैयारी में हैं तो दूसरा खेमा भी अपने पुराने हथियारों से लैस होकर बीच मैदान में डटा है. सवाल यह है कि इस पेशे से जुड़ी 10-12 लाख से ज़्यादा बाल यौनकर्मियों को क्या यह हक़ देना जायज़ होगा? सवाल इसलिए अहम है कि खेलने, पढ़ने और एक आम औरत की तरह पारिवारिक ज़िंदगी जीने के मौलिक अधिकार से महरूम बच्चियां जो काम कर रही हैं, उस पर हम कैसे क़ानून की मुहर लगा सकते हैं? क्या क़ानूनी मान्यता मिलने से यौनकर्मियों की संख्या अचानक बढ़ नहीं जाएगी? बीच बहस में इन सब सवालों की बौछार हो रही है. बेहतर है कि हम दोनों पक्षों की राय जान लें...

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मोसाद यानी ख़ौ़फ का दूसरा नाम



महिलाओं का सबसे बड़ा हथियार है सेक्स. इस दौरान इधर-उधर की बातें करना इनके लिए बड़ी समस्या नहीं है, लेकिन इसके लिए भी ख़ास साहस की ज़रूरत होती है. बात स़िर्फ दुश्मन के साथ सोने की नहीं, बल्कि ख़ु़फिया जानकारी हासिल करने की होती है.

इज़रायल का दूसरा सबसे बड़ा शहर है तेल अवीव. यहीं एक ऐसी एजेंसी का मुख्यालय है, जिसे हम मोसाद कहते हैं. मोसाद यानी दुनिया की सबसे ख़तरनाक ख़ु़फिया एजेंसी. मोसाद को क़रीब से जानने वालों की मानें तो यह दुनिया की सबसे ख़ौफनाक क़ातिल मशीन की तरह काम करती है. इस क़ातिल एजेंसी के मुखिया की सोच कैसी होगी, यह सोचकर ही रूह कांप उठती है. यह बात हम यूं ही नहीं कर रहे हैं. अपने पेशेवर क़ातिलाना मिशन की हक़ीक़त का ख़ुलासा ख़ुद मोसाद के मुखिया भी करते हैं. वर्ष 2000 से अभी तक मोसाद की कमान संभाल रहे मीर डागन का बयान हमारी उस बात की तस्दीक करता है, जिसमें हम अभी तक मोसाद के ख़तरनाक, बेरहम और क़ातिलाना मिशन की बात करते आ रहे थे. मीर डागन कहते हैं, जब मैं लेबनान में लड़ रहा था तो उस व़क्त हमारे जेहन में मिशन के अलावा कुछ भी नहीं चल रहा था. हमारा मक़सद स़िर्फ और स़िर्फ एक ही था, दुश्मनों का ख़ात्मा. चाहे इसके लिए किसी भी रास्ते को अख्तियार करना पड़े. मीर डागन अपनी बात कुछ इस तरह समझाते हैं, जो महज़ एक मिसाल नहीं, बल्कि उनकी क्रूर और क़ातिल सोच का नतीजा है. डागन बताते हैं कि लेबनान में एक मिशन के दौरान वह एक घर में घुसे. 1`अंदर घुसते ही उन्होंने ताबड़तोड़ हमला कर दिया. जब उन्होंने गोलियों की बरसात बंद की तो देखा कि एक शख्स के सिर में इतनी गोलियां लगी थीं कि उसका सिर धड़ से अलग हो गया था. उसके शरीर के पास उसकी बीवी और चार बच्चों की लाशें पड़ी हुई थीं. इतनी बेरहमी से हत्या के बावजूद उनके चेहरे पर शिकन की कोई लकीर नहीं थी और न ही अ़फसोस की कोई भावभंगिमा. यानी अपने दुश्मनों के ख़ात्मे के लिए वह औरत और बच्चों को भी नहीं बख्शते थे. मोसाद के मिशन की ज़द में जो कोई भी आएगा, उसका अंजाम भी कुछ इसी तरह या इससे भी ख़ौ़फनाक होगा...




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समाज को साई कृपा की जरूरत

साईं बाबा ने अपनी अलौकिक शक्ति से तत्कालीन समाज को चमत्कृत कर दिया था. समाज में व्याप्त जातिपात, ऊंच-नीच के भेद को मिटाकर मानव मात्र में प्रेम की शिक्षा देने के लिए ही साईं बाबा ने संसार में सबसे पहले इस बात की घोषणा की कि सबका मालिक एक है. साईं बाबा सभी धर्म, मज़हब और पंथों का एक समान आदर करते थे. यही कारण है कि आज तक जो भी संत, महात्मा, फक़ीर, पादरी, पैंगबर और गुरु हुए हैं, उनमें शिरडी के साईं बाबा का चरित्र सबसे अलग है.
साईं बाबा ने अपनी साधना और मानव कल्याण का केंद्र शिरडी की एक टूटी-फूटी मस्जिद को बनाया, जहां एक ओर वह हिंदू संतों की तरह मस्जिद के भीतर धूनी रमाकर बैठते थे, वहीं दूसरी ओर उनकी ज़ुबान पर हमेशा अल्लाह मालिक है का वाक्य रहता था. जातिपात, ऊंच-नीच और तत्कालीन समाज में व्याप्त कुरीतियों का विरोध करते हुए साईं बाबा ने अपने भक्तों के सामने भाईचारे, समानता और प्रेम का आदर्श स्थापित किया. सभी धर्मों के धार्मिक पर्व बाबा और उनकी द्वारका मस्जिद पूरे उल्लास के साथ मनाती थी. उनकी कथनी और करनी में भेद नहीं था. मानव मात्र की सेवा ही उनका परम उद्देश्य था....

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बुजुर्गों के प्रति सभी गैर जिम्मेदार

डी.आर.आहूजा

समाज हो, संगठन हो अथवा फिर सरकार, वरिष्ठ नागरिकों के प्रति किसी का भी रवैया संवेदनशील नज़र नहीं आता. उनके प्रति उपेक्षा का यह भाव संवेदना को उद्वेलित करने वाला है. जीवन के अंतिम पड़ाव पर पहुंचे लोगों के संबंध में हम अपना दायित्व क्यों भूल जाते हैं?
सरकार वरिष्ठ नागरिकों की देखभाल के लिए नीतियां और कार्यक्रम बनाने के क्रम में 80 वर्ष की अवस्था पार कर चुके बुज़ुर्गों को पूरी तरह नज़रअंदाज़ कर देती है. वह सभी बुज़ुर्गों को एक समान समूह में रखकर ही उनकी समस्याओं को देखती है. जबकि उम्र के आठवें दशक के पार ज़िंदगी जी रहे लोगों की सामाजिक, आर्थिक, भावनात्मक, मनोवैज्ञानिक और स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं भिन्न होती हैं. सरकार ने उनकी विशिष्ट ज़रूरतों और बाधाओं को ध्यान में रखकर कोई भी कार्यक्रम कार्यान्वित नहीं कर रखा है. जबकि वियना इंटरनेशनल प्लान ऑफ एक्शन 1982 में इस तथ्य का स्पष्ट उल्लेख है कि बुज़ुर्गों के लिए, ख़ासकर वे बुज़ुर्ग जो एक निश्चित उम्र सीमा को पार कर चुके हैं, नीतियां और कार्यक्रम बनाने में उनकी ज़रूरतों का अलग से ध्यान रखा जाएगा. जबकि बुज़ुर्गों के लिए मैड्रिड इंटरनेशनल प्लान ऑफ एक्शन 2002 अस्सी से ऊपर के बुज़ुर्गों की ज़रूरतों की परवाह नहीं करता. बावजूद इसके कि उनकी ज़रूरतें 60 से 79 वर्ष उम्र समूह की ज़रूरतों से का़फी अलग होती हैं. बुजुर्गो का यह समूह आर्थिक ज़रूरतों के लिए दूसरों पर ज़्यादा निर्भर है. सामाजिक रूप से ज़्यादा कटा हुआ है, मनोवैज्ञानिक रूप से ज़्यादा दमित है और इन्हें सेहत संबंधी एवं व्यक्तिगत देखभाल की ज़रूरत दूसरों से कहीं ज़्यादा होती है...



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अकादमी पुरस्कारों का खेल

अनंत विजय

साल के आख़िरी दिनों में साहित्यिक हलके में अकादमी पुरस्कारों को लेकर सरगर्मियां तेज़ हो जाती हैं. राजधानी दिल्ली में तो अटकलों का बाज़ार इस कदर गर्म हो जाता है कि तथाकथित साहित्यिक ठेकेदारों की जेब में पुरस्कृत होने वाले लेखकों की सूची रहती है. जहां भी तीन-चार लेखक जुटते हैं, क़यासबाजी का दौर शुरू हो जाता है और गिनती चालू हो जाती है कि किस लेखक की पुस्तक पिछले तीन वर्षों में आई तथा किसका जुगाड़ इस बार फिट बैठ रहा है. किसने अपनी गोटी सेट कर ली है. साहित्य अकादमी और उसके अध्यक्ष को नज़दीक से जानने वालों का मानना है कि इस बार हिंदी लेखक को मिलने वाले पुरस्कार में हिंदी के भाषा संयोजक विश्वनाथ तिवारी की चलेगी. पिछले अध्यक्ष गोपीचंद नारंग के कार्यकाल में उनकी चलती थी और उन्होंने हिंदी के संयोजक एवं वरिष्ठ लेखक गिरिराज किशोर को पुरस्कारों के मामले में पैदल कर दिया था...


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टाइगर वुड्‌स ने तोड़ा दुनिया का भरोसा

खेलों की दुनिया में उत्थान के साथ-साथ पतन भी एक कड़वी सच्चाई है. जो खिलाड़ी एक पल सफलता के शिखर पर होता है, अगले ही पल उसकी सफलता का सिंहासन डगमगाने लगता है. यहां हम जिस सितारे की बात कर रहे हैं, उनका करियर तो बुलंदियों पर है, लेकिन निजी ज़िंदगी में आए भूचाल ने इनके करियर पर भी ग्रहण लगाना शुरू कर दिया है. हम जिस सितारे की बात कर रहे हैं, वह दुनिया के सबसे महंगे खेल गोल्फ के खिलाड़ी टाइगर वुड्‌स हैं.टाइगर वुड्‌स ने महज़ दो साल की उम्र में गोल्फ खेलना शुरू किया था और पिछले साल वुड्‌स ने अपने करियर का आख़िरी सबसे बड़ा ख़िताब यू एस ओपन जीता. इस दरम्यान वुड्‌स ने न जाने कितनी ख़िताबें अपने नाम कीं. यानी गोल्फ की दुनिया में वुड्‌स का डंका हर तऱफ बोला. वुड्‌स अभी तक इतनी शोहरत हासिल कर चुके हैं कि हाल ही में उन्हें इस दशक का सबसे बेहतरीन खिलाड़ी घोषित किया गया है, लेकिन टाइगर वुड्‌स रूपी इस खिलाड़ी की शोहरत रातोंरात आसमान की बुलंदियों पर नहीं पहुंची. पदक दर पदक, साल दर साल और इस खिलाड़ी का खेल के प्रति समर्पण ने ही वुड्‌स को टाइगर वुड्‌स बनाया. लेकिन इस खिलाड़ी को आसमां से ज़मीन तक आने में महज़ दो मिनट से भी कम व़क्त लगा. यह दो मिनट से भी कम का व़क्त वह है, जब वुड्‌स फ्लोरिडा के अपने आठ मिलियन डॉलर के घर से गाड़ी चलाते हुए बाहर निकले और अपनी गाड़ी का एक्सीडेंट कर बैठे. दुनिया में हादसों का होना कोई नई बात नहीं है.......


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कंगना का संदेश





कंगना रानावत फिलहाल अपनी आनेवाली फिल्म तनु वेड्‌स मनु की शूटिंग में व्यस्त हैं. इस फिल्म में उनके साथ पहली बार आर माधवन नज़र आएंगे. वैसे कंगना इन दिनों समाज में महिलाओं को बराबरी का हक़ दिलाने के कामों में भी का़फी दिलचस्पी दिखा रही हैं. टेलीविजन सीरियल प्रतिज्ञा को सपोर्ट करती हुई वह कहती हैं कि बड़े शहरों की महिलाएं पढ़ी-लिखी होने के कारण वह सही ग़लत का फैसला करने में सक्षम होती हैं. लेकिन गांवों और छोटे शहरों में रहने वाली महिलाएं कम पढ़ी लिखी या अनपढ़ होने की वजह से अपना फैसला खुद करने में कमज़ोर पड़ जाती हैं. कंगना का मानना है कि देश के शहरों और महानगरों में तो महिलाओं का विकास हुआ है, पर गांवों में स्थिति अब भी गंभीर है. वहां लड़कियों के साथ घर और समाज हर जगह भेदभाव देखने को मिलता है. अपनी बहन रंगोली के साथ हुए हादसे को याद करते हुए वह कहती हैं कि अपने बचाव में ल़डकियां कोई साहसिक क़दम नहीं उठा पाती हैं. एक्टिंग की दुनिया में व्यस्त रहने वाली कंगना सामाजिक सरोकारों के प्रति भी सजग हैं. यह देखकर अच्छा लगता है पर उनकी यह सोच राजनीति में उनकी दिलचस्पी का कोई संकेत तो नहीं है! .....




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सोमवार, 21 दिसंबर 2009

वो आठ मिनट जिन्होंने इतिहास रचा-संसद में चौथी दुनिया


मनीष कुमार
ससद में चौथी दुनिया की गूंज जारी है. कई सालों बाद किसी अ़खबार में छपी रिपोर्ट पर संसद में हंगामा हो रहा है. जब लोकसभा में समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव और उनकी पार्टी के दूसरे सांसदों ने आपके अ़खबार चौथी दुनिया के हवाले से रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट पर सरकार को घेरा तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को आखिरकार झुकना ही पड़ा. उन्होंने सदन को यह आश्वासन दिया है कि संसद के वर्तमान सत्र के अंत तक रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट पेश कर दी जाएगी. राज्यसभा में भी रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट पर हंगामा जारी रहा. इन दोनों सदनों में क्या हुआ, इसका पूरा विवरण आप इस अ़खबार के पेज नंबर 3 और 5 पर पढ़ सकते हैं. लेकिन इससे पहले इस मामले से जुड़े ऐसे दो पहलुओं के बारे में जानना ज़रूरी है, जो दुनिया की नजर में आने से रह गए. दोनों ही बातें चौंकाने वाली हैं. पहली तो यह है कि लोकसभा में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के आश्वासन के बावजूद रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट को पेश नहीं किया जाएगा. दूसरी बात यह है कि चौथी दुनिया के संपादक संतोष भारतीय को सच बोलने की सज़ा मिलने जा रही है. उन्हें राज्यसभा से नोटिस मिला है जिसमें यह कहा गया है कि चौथी दुनिया में छपे लेख से सांसदों के विशेषाधिकार का हनन हुआ है. क्या सचमुच रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट संसद में पेश होगी?
रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट के मुद्दे पर मुलायम सिंह ने लोकसभा की कार्यवाही नहीं चलने दी. 9 दिसंबर को समाजवादी पार्टी के सांसद और मुलायम सिंह ने चौथी दुनिया अ़खबार लोकसभा में लहराया. जब उन्होंने इस अ़खबार में छपी रिपोर्ट का हवाला दिया तो प्रधानमंत्री को इस मसले पर बयान देने के लिए बाध्य होना पड़ा. गौर करने वाली बात यह है कि पिछले कई दिनों से राज्यसभा में रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट को लेकर लगातार हंगामा होता रहा. राज्यसभा में अलग-अलग दलों के सांसदों ने रिपोर्ट को सदन में पेश करने की मांग की थी. राज्यसभा में इस मामले पर इतना ज़बर्दस्त हंगामा हुआ कि कई बार सदन की कार्यवाही रोकनी पड़ी. सरकार इस बात से वाक़ि़फ थी कि जिस मुद्दे पर राज्यसभा में हंगामा हो रहा है, वह मामला लोकसभा में भी उठ सकता है. इसलिए यह यक़ीन किया जा सकता है कि सरकार ने इससे निपटने के लिए रणनीति ज़रूर बनाई होगी. सरकार ने इस पर क्या रणनीति बनाई, इसकी जानकारी हमें कांग्रेस के सूत्रों से मिली.
लोकसभा में हंगामे की घटना के ठीक दो दिन बाद यानी 11 तारी़ख को कांग्रेस के सूत्रों ने बताया कि रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट को संसद में पेश नहीं किया जाएगा. लोकसभा में जो कुछ भी हुआ, उससे कांग्रेस पार्टी चिंतित है. मुलायम सिंह ने जिस तरह के तेवर दिखाए, और उस व़क्त लोकसभा में जिस तरह हंगामा चल रहा था, उसे शांत करने के लिए प्रधानमंत्री ने यह बयान दे दिया कि रिपोर्ट को इसी सत्र में पेश कर दिया जाएगा. कांग्रेस पार्टी इसे एक ऐसा मुद्दा मानती है, जिससे विपक्ष में फूट पड़ जाएगी. इसलिए इस मामले को जितना टाला जाए, उतना ही सरकार के लिए लाभदायक है. हमारे सूत्रों के मुताबिक़, दलित मुसलमानों और ईसाइयों को आरक्षण की सुविधा देने का सुझाव देने वाली रंगनाथ कमीशन की रिपोर्ट को दबाने के लिए अलग तेलंगाना राज्य के मुद्दे को हवा दी गई है, ताकि मीडिया और विपक्ष का ध्यान बंट जाए. यही वजह है कि राज्यसभा में भी रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट को पेश करने की मांग पर सलमान खुर्शीद ने कर्नाटक और आंध्र प्रदेश के मॉडल की बात कहकर असली मुद्दे को टाल दिया. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने मुलायम सिंह के तेवर को शांत करने के लिए यह तो कह दिया कि रिपोर्ट को....

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लोकसभा की कार्यवाही में चौथी दुनिया और रंगनाथ मिश्र कमीशन रिपोर्ट


चौथी दुनिया ब्यूरो
दिनांक- 9 दिसंबर, 2009, समय- पूर्वान्ह 11 बजे.
स्पीकर के आने की घोषणा- माननीय सभासदों, माननीय अध्यक्षा जी...
हाथ जोड़कर अध्यक्षा जी कुर्सी की तऱफ ब़ढ रही हैं. तभी मुलायम सिंह यादव सहित कई सांसद चौथी दुनिया अ़खबार की प्रति हवा में लहराते हुए रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट पेश करने को लेकर सवाल करने लगते हैं कि सरकार इस रिपोर्ट को सदन में कब पेश करेगी?
स्पीकर : (शोर सुनकर) कृपया बैठ जाइए....
प्रश्न संख्या 281, श्री अमरनाथ प्रधान..
(शोर फिर से शुरू, सदस्यगण चौथी दुनिया अ़खबार लहराते हैं)
स्पीकर : कृपया बैठ जाइए, कृपया शांत हो जाइए, यह, इसे इस तरह नहीं दिखाएंगे. कृपया शांत होकर बैठिए, शांत होकर बैठिए. यह इस तरह न दिखाएं. इस तरह से अ़खबार न दिखाएं और अपनी जगह ग्रहण कर लें. हम आपको..
तभी मुलायम सिंह फिर कुछ बोलते हैं...
स्पीकर : हां मुलायम सिंह जी, हम आपसे... कृपया बैठ जाइए, यह इस तरह न दिखाएं, इस तरह न दिखाएं, जो भी गंभीर हैं. हम इस पर आपसे बात कर लेंगे. (शोर हो रहा है) जी हां, आपसे बात करेंगे.
मुलायम सिंह : यह कोई मामूली बात नहीं है.
स्पीकर : जी हां, यह कोई मामूली बात नहीं है. इस तरह अ़खबार न दिखाएं, अपना स्थान ग्रहण करें, इस पर बात करेंगे. बैठ जाइए-बैठ जाइए... (दो-तीन बार कहती हैं)
(शोर फिर से शुरू)
स्पीकर : कृपया बैठ जाइए, माननीय प्रधानमंत्री जी कुछ कहना चाह रहे हैं, प्रधानमंत्री जी कुछ कहना चाह रहे हैं., सुषमा जी स्थान ग्रहण कीजिए.
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह बोलते हैं, लेकिन उनकी आवाज़ नहीं आती है.
बाकी लोग कहते हैं कि आवाज़ नहीं आ रही है. सुनाई नहीं दे रहा है...
(शोरगुल हो रहा है)
स्पीकर : प्रश्नकाल, जी हां इसको हम शून्य प्रहर में उठा लेगे., सबसे पहले उठा लेंगे.
(शोर- सबसे पहले... सभी के हाथों में.....

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लोकसभा और राज्यसभा में इतना अंतर्विरोध क्यों

संतोष भारतीय
अली अनवर जदयू के राज्यसभा सांसद हैं और पसमांदा मुसलमानों के नेता हैं. 24 नवंबर को उन्होंने राज्यसभा में चौथी दुनिया की प्रति लहराई और मांग की कि रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट संसद में पेश की जाए, क्योंकि यह रिपोर्ट इस अख़बार में छप गई है. उनका यह भी कहना था कि रंगनाथ मिश्र कमीशन की स़िफारिशों का भी उतना ही महत्व है, जितना लिब्रहान कमीशन की स़िफारिशों का, तब क्यों सरकार दोहरा मानदंड अपना रही है. उसने लिब्रहान कमीशन की रिपोर्ट पेश कर दी, पर रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट पेश नहीं कर रही है. उनका समर्थन तारिक अनवर, अमर सिंह, कमाल अख्तर, एस एस अहलूवालिया, जयंती नटराजन, सीताराम येचुरी और डी राजा ने किया. इनकी इस मांग का, कि जब रिपोर्ट चौथी दुनिया में छप गई है तो उसे संसद में तत्काल पेश किया जाना चाहिए, का समर्थन एन के सिंह, वेंकैया नायडू, राजनीति प्रसाद और प्रोफेसर रामगोपाल यादव ने भी किया. राज्यसभा दो बार स्थगित भी हुई पर इन सांसदों को, जो हर दल का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, जवाब नहीं मिला.

अली अनवर के मन में सवाल उठा कि उनका राज्यसभा का सदस्य रहना कितना सही है, क्योंकि जब वे और हर दल के सदस्य मिलकर भी सही बात नहीं मनवा सकते तो क्या वे अप्रासंगिक हो रहे हैं? उन्होंने अपनी व्यथा अपने साथियों से कही. उधर लिब्रहान रिपोर्ट को लेकर देश में बयानबाज़ी शुरू हो चुकी थी और देश में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की कोशिशें तेज़ हो गई थीं.

कोई नहीं था जो कहता कि रंगनाथ मिश्र कमीशन बुनियादी समस्याओं के हल के सुझाव के लिए बना था, जबकि लिब्रहान कमीशन की पूरी रिपोर्ट पिछले सत्रह सालों में छपी अख़बारों की कतरनों का, कहें तो संग्रह भर है, जिसने देश में सांप्रदायिक माहौल बिगाड़ना शुरू कर दिया है. रंगनाथ कमीशन सफलतापूर्वक दबा दिया गया, तब फिर चौथी दुनिया को आगे आना पड़ा. चौथी दुनिया ने कहा कि रंगनाथ मिश्र कमीशन रिपोर्ट पेश न होना राज्यसभा का अपमान है. राज्यसभा के सदस्य चाहकर भी रिपोर्ट पेश न करा पाए तो उन्हें क्या कहा जाए. हालांकि 24 नवंबर को अली अनवर और सांसदों ने पूरी कोशिश की थी, लेकिन सफल नहीं हो पाए. यह रिपोर्ट 7 दिसंबर के अंक में छपी तो राज्यसभा के कुछ सांसदों को लगा कि वे इस बार फिर कोशिश कर सकते हैं. उन्होंने चौथी दुनिया के ख़िला़फ विशेषाधिकार का नोटिस दिया तथा कहा कि यह अख़बार हम लोगों को शक्तिहीन और निर्वीर्य लिख रहा है.

जैसे ही आठ दिसंबर को राज्यसभा शुरू हुई, अली अनवर, साबिर अली, अजीज़ पाशा और राजनीति प्रसाद ने शून्यकाल में ज़ोरदार ढंग से चौथी दुनिया के ख़िला़फ विशेषाधिकार हनन का प्रस्ताव पेश किया तथा कहा कि यह सरकार रिपोर्ट पेश न कर सभी सांसदों को.....

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चौथी दुनिया की जंग जारी

रूबी अरुण
नवंबर का आख़िरी हफ़्ता. समाजवादी पार्टी में चल रही अंदरूनी खींचतान के दरम्यान कयासों का दौर जारी था. फिरोजाबाद संसदीय चुनाव में सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव की बहू डिंपल यादव की हार के बाद हुई बयानबाज़ियों ने पार्टी की नींव हिलने के संकेत देने शुरू कर दिए थे. गुज़िस्ता दिनों के साथ मुलायम सिंह और अमर सिंह के अलगाव की ख़बरें ज़ोर पकड़ने लगी थीं. पार्टी कार्यकर्ताओं तक में मुग़ालते के हालात थे. ख़बरनवीसों को किसी सनसनीखेज ख़बर का इंतज़ार था. तभी यह सूचना मिली कि सपा महासचिव अमर सिंह के आवास 27, लोधी स्टेट में एक प्रेस कांफ्रेंस की जा रही है. सभी अख़बार और चैनल वाले टूट पड़े. उन्हें लगा कि आज तो यानी 3 दिसंबर को अमर सिंह यह ऐलान कर ही देंगे कि वह पार्टी छोड़ रहे हैं. पर जब सभी वहां पहुंचे तो नज़ारा चौंकाने वाला था. वहां तो अमर सिंह और मुलायम सिंह यादव अपने पुराने याराना वाले अंदाज़ में हंसते-बतियाते मिले. ख़ैर कांफ्रेंस शुरू हुई. बात लिब्रहान कमीशन की रिपोर्ट और मुसलमानों के हक़ ओ हक़ूक से शुरू हुई. अचानक मुलायम सिंह और अमर सिंह ने सामने टेबल पर पड़े कुछ अख़बारों को उठाया और उन्हें न्यूज़ चैनल के कैमरों के सामने कर दिया. वह अख़बार था चौथी दुनिया और ख़बर थी



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बैगा आदिवासियों के नाम पर करोडों की लूट


संध्या पांडे
करोड़ों रुपये खर्च करने के बाद भी मध्य प्रदेश में आदिवासी बैगा जनजाति अभी भी भुखमरी की शिकार है. एक अनुमान के अनुसार, सरकार की ओर से अब तक जितना अनुदान बैगा जनजाति के कल्याण कार्यों के लिए मिला है, यदि उसे बैगा परिवारों में बांट दिया जाता तो प्रत्येक परिवार को लगभग साढ़े सात लाख रुपये अपनी हालत सुधारने के लिए सीधे मिल सकते थे. सरकारी तंत्र ने बैगाओं के नाम पर केंद्र सरकार द्वारा आवंटित धनराशि पिछले डेढ़ दशक के दौरान जमकर लूटी.

आदिवासियों के सामाजिक-आर्थिक उत्थान के लिए केंद्र और राज्य सरकारें सामान्य बजट से हर साल करोड़ों रुपये खर्च करती हैं. इसके अलावा बैगा विकास प्राधिकरण को केंद्र ने करोड़ों रुपये की सहायता अलग से दी है, लेकिन इसके बावजूद बैगाचक का न तो कोई विकास हुआ है और न ही बैगाओं की हालत में कोई सुधार दिखाई देता है. आजादी के बाद से वर्ष 2002 तक केंद्र एवं राज्य सरकार के आदिवासी बजट और बैगा विकास प्राधिकरण के लिए प्राप्त केंद्रीय सहायता की कुल धनराशि 95 अरब 93 करोड़ रुपये थी. यह पूरा धन बैगाचक के विकास और बैगाओं के सामाजिक- आर्थिक

कल्याण के लिए खर्च बताया जाता है, लेकिन बैगाचक और बैगाओं की हालत में कोई सुधार नहीं हुआ.

मध्य प्रदेश के पांच ज़िलों में बैगा प्राधिकरण कार्यरत हैं. मंडला प्राधिकरण में 249 गांव हैं, जिनमें 23509 बैगा निवास करते हैं. डिंडौरी ज़िले में 217 गांवों में 21239, शहडोल ज़िले में 238 गांवों में 35120, उमरिया ज़िले के 248 गांवों में 37600 और बालाघाट ज़िले में 191 गांवों में 13957 बैगा निवास करते हैं. इस प्रकार मध्य प्रदेश में कुल 1,31,425 बैगा हैं. लगभग डेढ़ लाख बैगा छत्तीसगढ़ के विभिन्न ज़िलों में रहते हैं. सरकार ने इन बैगाओं के उत्थान और विकास के लिए जो धन सीधे खर्च होना बताया है, यदि उसे सीधे बैगाओं में बांट दिया जाता तो हर परिवार के हिस्से में 7.30 लाख रुपये आते. लेकिन सरकार के इरादे चाहे जितने पवित्र क्यों न हों, सरकारी तंत्र ने जिस प्रकार काम किया, उससे बैगाओं के कल्याण और विकास का करोड़ों रुपया भ्रष्टाचार के हवन में स्वाहा हो गया.

चौथी दुनिया ने मध्य प्रदेश के कुछ क्षेत्रों में बैगाओं की स्थिति का


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कपिल सिब्बल जी, यह क्या हो रहा है।


शशि शेखर
एक कहावत है, अंत भला तो सब भला. लेकिन देश की प्रतिष्ठित शैक्षणिक संस्था दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) के कुलपति के लिए मानो यह कहावत झूठी साबित होने जा रही है. अपने पांच वर्षीय कार्यकाल के अंतिम वर्ष में डीयू के कुलपति दीपक पेंटल अपनी नियुक्ति से जुड़े विवाद में फंस गए हैं. कुलपति पर उक्त आरोप कहीं बाहर से नहीं, बल्कि विश्वविद्यालय की ही एकेडमिक काउंसिल की तऱफ से लगाए जा रहे हैं और बाक़ायदा इसके काग़जी सबूत भी इकट्ठा कर लिए गए हैं. चौथी दुनिया के पास वे सभी दस्ताव़ेज मौजूद हैं, जिनके आधार पर कहा जा रहा है कि 2005 में दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति की नियुक्ति में मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने नियमों की अनदेखी की और अपने चहेते दीपक पेंटल को कुलपति बनवा दिया.

इस प्रकरण का सबसे अहम तथ्य यह है कि दीपक पेंटल की नियुक्ति विजिटर के हस्ताक्षर बिना हुई है. डीयू एक केंद्रीय विश्वविद्यालय है और इसके विजिटर होते हैं राष्ट्रपति. डीयू एक्ट 1922 के मुताबिक़, कुलपति की नियुक्ति विजिटर करते हैं. दीपक पेंटल की नियुक्ति से संबंधित पूरी फाइल की जांच के दौरान ऐसा कोई पत्र नहीं मिला, जिससे यह साबित हो सके कि उन्हें कुलपति नियुक्त करने के लिए विजिटर ने अपने हस्ताक्षर से

कोई आदेश जारी किया हो. अलबत्ता, तत्कालीन राष्ट्रपति के सचिव पी एम नायर ने ज़रूर अपना हस्ताक्षर किया हुआ एक पत्र 30 अगस्त 2005 को मानव संसाधन मंत्रालय को भेजकर पेंटल की कुलपति पद पर नियुक्ति की सूचना दी थी. हालांकि ग़ौर से देखने पर पता चलता है कि यह पत्र अनाधिकारिक (अन-ऑफिसियल) तौर पर लिखा गया था. मज़े की बात यह है कि इसी पत्र के आधार पर एक सितंबर को मानव संसाधन मंत्रालय के अवर सचिव एस एस महलावत पेंटल की नियुक्ति की सूचना डीयू रजिस्ट्रार को देते हैं, एक सितंबर को ही रजिस्ट्रार नियुक्ति से संबंधित अधिसूचना भी जारी करते हैं और पेंटल इसी दिन अपना पदभार भी संभाल लेते हैं. यानी यह सब कुछ चट मंगनी, पट ब्याह की तर्ज़ पर होता गया. मज़े की बात यह है कि इस नियुक्ति की सूचना दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलाधिपति और सर्वेसर्वा, जो कि उप राष्ट्रपति होते हैं, को भी आधिकारिक तौर पर नहीं दी गई. पेंटल ने पदभार ग्रहण करते व़क्त स़िर्फ एक पत्र रजिस्ट्रार के नाम से यह अनुरोध करते हुए भेजा कि इसे अधिसूचित कर दिया जाए.

ग़ौरतलब है कि डीयू एक्ट की धारा 11-एफ के मुताबिक़, कुलपति की नियुक्ति विजिटर द्वारा की जाती है. विजिटर एक कमेटी का गठन करते हैं, जिसमें तीन सदस्य होते हैं और इन्हीं तीनों में से किसी एक को कमेटी का अध्यक्ष नियुक्त किया जाता है. यह कमेटी कुलपति पद के लिए आए आवेदनों में से नामों का चयन करती है और विजिटर के पास अंतिम निर्णय के लिए भेजती है. 2005 में डीयू में कुलपति की नियुक्ति के लिए भी ऐसी ही एक कमेटी का गठन किया गया. रोमिला थापर एवं डॉ. आबिद हुसैन सदस्य बनाए गए और अध्यक्ष पद पर नियुक्त हुए पूर्व न्यायाधीश पी एन भगवती. विजिटर द्वारा कुलपति नियुक्त किए जाने का मतलब यह है कि कमेटी जिन नामों को भेजेगी, उनमें से किसी एक नाम पर विजिटर अपनी मुहर लगाएंगे. ज़ाहिर है, नियुक्ति के लिए जारी पत्र या किसी आदेश पर कहीं न कहीं विजिटर के हस्ताक्षर भी होंगे, लेकिन इस मामले में


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बंद कमरे में यौनेच्छा का विस्फोट

अनंत विजय
हिंदी में अनुवाद की स्थिति अच्छी नहीं है.विदेशी साहित्य को तो छोड़ दें, अन्य भारतीय भाषाओं में लिखे जा रहे श्रेष्ठ साहित्य भी हिंदी में अपेक्षाकृत कम ही उपलब्ध हैं. अंग्ऱेजी में लिखे जा रहे रचनात्मक लेखन को लेकर भी हिंदी के प्रकाशकों में खासा उत्साह नहीं है. हाल के दिनों में पेंग्विन प्रकाशन ने कुछ अच्छे भारतीय अंग्ऱेजी लेखकों की कृति का अनुवाद प्रकाशित किया है, जिनमें नंदन नीलेकनी, नयनजोत लाहिड़ी, अरुंधति राय की रचनाएं प्रमुख हैं.पेंग्विन के अलावा हिंदी के भी कई प्रकाशकों ने इस दिशा में पहल की है, लेकिन उनका यह प्रयास ऊंट के मुंह में जीरे जैसा है. राजकमल प्रकाशन ने भी विश्व क्लासिक श्रृंखला में कई बेहतरीन उपन्यासों और किताबों का प्रकाशन किया था, लेकिन उसकी रफ़्तार भी बाद के दिनों में धीमी पड़ गई. राजकमल के अलावा संवाद प्रकाशन, मेरठ ने इस दिशा में उल्लेखनीय काम किया है. स़िर्फ कुछ प्रकाशनों की पहल से इस कमी को पूरा नहीं किया जा सकता है. हालत यह है कि साहित्य का नोबेल पुरस्कार प्राप्त लेखकों या लेखिकाओं की पुस्तकें भी हिंदी में मुश्किल से मिलती हैं. लेकिन हाल के दिनों में हिंदी के प्रकाशकों ने अंतरराष्ट्रीय पुस्तक मेलों में अपनी भागीदारी बढ़ाई है और वहां जाकर विदेशी भाषाओं की श्रेष्ठ पुस्तकों के हिंदी में प्रकाशन अधिकार खरीदने की पहल शुरू की है. नतीजा यह हुआ कि हिंदी में भी विश्व की चर्चित कृतियों के प्रकाशन में इज़ा़फा होता दिखने लगा है.

राजकमल प्रकाशन के साथ अब वाणी प्रकाशन ने भी इस दिशा में ठोस और सार्थक पहल की है. वाणी प्रकाशन ने वर्ष 2004 में साहित्य के नोबेल पुरस्कार प्राप्त एल्फ्रीडे येलिनिक की कृति दी क्लावीयरश्पीलेरिन का हिंदी अनुवाद पियानो टीचर के नाम से छापा है. इस कृति का अनुवाद विदेशी भाषा साहित्य की त्रैमासिक पत्रिका सार संसार के मुख्य संपादक और जर्मन भाषा के विद्वान अमृत मेहता ने किया है. एल्फ्रीडे येलिनिक ऑस्ट्रिया कम्युनिस्ट पार्टी की लगभग डे़ढ दशक तक सदस्य रह चुकी हैं. नब्बे के दशक के शुरुआती वर्षों में येलिनिक की आक्रामकता ने उन्हें ऑस्ट्रिया की राजनीति में एक नई पहचान दी, लेकिन कालांतर में उनका राजनीति से मोहभंग हुआ और वह पूरी तरह से लेखन की ओर मुड़ गईं. जब येलिनिक ने लेखन में हाथ आज़माए तो यहां भी उनकी भाषा का़फी आक्रामक रही. येलिनिक ने लगभग पचास वर्ष पूर्व के विएना के नैतिक और सामाजिक पतन को अपने लेखन का विषय बनाया तथा उस पर जमकर लेखन किया. येलिनिक की रचनाओं की थीम और उसमें प्रयोग की जाने वाली भाषा को लेकर आलोचकों ने उन पर जमकर हमले किए. एल्फ्रीडे येलिनिक पर बहुधा यह आरोप लगता रहा है कि कि उन्होंने ऑस्ट्रिया के समाज में व्याप्त विकृतियों और कुरीतियों को अश्लील भाषा में अपने साहित्य में अभिव्यक्ति दी.

दरअसल येलिनिक ने अपने साहित्य में फीमेल सेक्सुअलिटि, फीमेल अब्यूज और विपरीत सेक्स के बीच जारी द्वंद को प्रमुखता से लेखन का केंद्रीय विषय बनाया. नोबेल पुरस्कार प्राप्त कृति पियानो टीचर में भी येलिनिक ने मानवीय संबंधों में क्रूरता और शक्ति प्रदर्शन के खेल को बेहद संजीदगी से उठाया है और बग़ैर किसी निष्कर्ष पर पहुंचे पाठकों के सामने कई अहम सवाल छोड़ दिए हैं. एल्फ्रीडे येलिनिक का यह उपन्यास पियानो टीचर अंग्रेज़ी में 1988 में प्रकाशित हुआ, जिसमें पियानो टीचर ऐरिका कोहूट के जीवन में


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