बिमल राय
लम्हों ने ख़ता की थी, सदियों ने सज़ा पाई. कुछ ऐसा ही हो रहा है, बंगाल के पुलिस प्रशासन के साथ. घनघोर अंधेरे में लिपटे लालगढ़ के वर्तमान को समझने के लिए कुछ देर हमें पीछे झांकना होगा. उसके बाद ही आगे की कड़ियों का तारतत्य समझ में आ सकेगा. दो नवंबर 2008 को सालबनी में ज़िंदल के प्रस्तावित स्टील प्लांट की जगह देखने जा रहे मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य और तत्कालीन इस्पात मंत्री रामविलास पासवान के काफ़िले को बारूदी सुरंग से उड़ाने की साज़िश का पर्दाफाश करने का जिम्मा क्या मिला, बंगाल पुलिस ने इसे
निरीह आदिवासियों पर ज़ुल्म ढाने का लाइसेंस ही समझ लिया. छोटो पेलिया, बोड़ो पेलिया, भासबेर और काटा पहाड़ी इलाकों में पुलिस ने बेरहमी की वो कहानी लिखी, जिसे भुला पाना ग़रीबी और ज़िल्लत की ज़िंदगी जी रहे आदिवासियों के लिए काफी मुश्किल है. इस तरह वे भी ख़ून के बदले ख़ून की जंग के साथ हो गए हैं.

विस्फोट के दो दिन बाद पांच नवंबर 2008 को छोटो पेलिया में पुलिस ने एक महिला के घर आए अतिथि को माओवादी व सालबनी विस्फोट कांड का मुख्य अभियुक्त बताकर पकड़ लिया. प्रतिरोध करने पर पुलिस बंदूक की बट से उसके माथे पर चोट करती है. उसकी एक आंख सदा के लिए चली गई है. एक और बानगी. उसी रात ठीक उसी गांव में पुलिस 8 वीं से 10 वीं कक्षा में पढ़ने वाले चार बच्चों को पकड़ लेती है. थाने में पता चलता है कि एक बच्चे का पिता सेना में है, तो उसको रिहा किया जाता है. काटा पहाड़ी स्कूल के हेडमास्टर को माओवादियों को संरक्षण देने के जुर्म में पकड़ा जाता है. 1998 से पहले लालगढ़ ऐसा नहीं था. गरीबी थी, पिछड़ापन था, पर बारूद की गंध नहीं थी. बूटों की खड़खड़ाहट नहीं थी, बम बरसाने की मुद्रा में गुर्रा रहे हेलिकॉप्टरों की निगरानी नहीं थी.
पूछा जा सकता है, सोचा जा सकता है कि आज लालगढ़ के हालात के ज़िम्मेदार कौन लोग हैं? पुलिस का कहर जारी रहा, बच्चों पर, बूढ़ों पर, महिलाओं पर. एक पुराना घिसा-पिटा तरीका-आम लोगों में आतंक कायम करो और सरकार की साख़ बहाल करो. इससेजनाक्रोश जितना उबल सकता था, उससे कहीं ज़्यादा उबला. आदिवासियों ने पुलिस संघर्ष विरोधी जनसाधारणेर कमेटी बनाई. इस तरह पुलिस और उसके साथ मिलकर काम करते आ रहे माकपा काडरों के लिए गाली की तरह इस्तेमाल किये जाने वाले शब्द हरमाद वाहिनी के खिलाफ़ जंग का ऐलान हो गया. रास्ते काटकर बंगाल सरकार की पुलिस और अधिकारियों का प्रवेश निषेध कर दिया गया. फिर भी अमन का एक रास्ता बचा था. संघर्ष समिति ने लोकसभा चुनावों से पहले कहा था कि अगर पुलिस जनता पर किए गए अत्याचारों के लिए माफी मांग लेती है तो वे अपना आंदोलन ख़त्म कर देंगे. 33 साल से राज कर रही वाम सरकार के मुखिया ने नंदीग्राम के अत्याचार के लिए तो र्मोंी मांग ली, पर लालगढ़ के पुलिसिया जुल्म के लिए माफी मांगने में उसे शायद शर्म आई. नतीजा यह हुआ कि पश्चिम मिदनापुर के कम से कम दर्जनों बूथों पर मतदान का बहिष्कार हुआ. आज लालगढ़ ज़ंग का मैदान बन गया है. एक ऐसी जंग, जिसके उस पार भी अपने ही परिजन....
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