चौथी दुनिया पढ़िए, फैसला कीजिए

मंगलवार, 30 जून 2009

लालगढ़ की लाल लपटें

बिमल राय

लम्हों ने ख़ता की थी, सदियों ने सज़ा पाई. कुछ ऐसा ही हो रहा है, बंगाल के पुलिस प्रशासन के साथ. घनघोर अंधेरे में लिपटे लालगढ़ के वर्तमान को समझने के लिए कुछ देर हमें पीछे झांकना होगा. उसके बाद ही आगे की कड़ियों का तारतत्य समझ में आ सकेगा. दो नवंबर 2008 को सालबनी में ज़िंदल के प्रस्तावित स्टील प्लांट की जगह देखने जा रहे मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्‌टाचार्य और तत्कालीन इस्पात मंत्री रामविलास पासवान के काफ़िले को बारूदी सुरंग से उड़ाने की साज़िश का पर्दाफाश करने का जिम्मा क्या मिला, बंगाल पुलिस ने इसे निरीह आदिवासियों पर ज़ुल्म ढाने का लाइसेंस ही समझ लिया. छोटो पेलिया, बोड़ो पेलिया, भासबेर और काटा पहाड़ी इलाकों में पुलिस ने बेरहमी की वो कहानी लिखी, जिसे भुला पाना ग़रीबी और ज़िल्लत की ज़िंदगी जी रहे आदिवासियों के लिए काफी मुश्किल है. इस तरह वे भी ख़ून के बदले ख़ून की जंग के साथ हो गए हैं.

विस्फोट के दो दिन बाद पांच नवंबर 2008 को छोटो पेलिया में पुलिस ने एक महिला के घर आए अतिथि को माओवादी व सालबनी विस्फोट कांड का मुख्य अभियुक्त बताकर पकड़ लिया. प्रतिरोध करने पर पुलिस बंदूक की बट से उसके माथे पर चोट करती है. उसकी एक आंख सदा के लिए चली गई है. एक और बानगी. उसी रात ठीक उसी गांव में पुलिस 8 वीं से 10 वीं कक्षा में पढ़ने वाले चार बच्चों को पकड़ लेती है. थाने में पता चलता है कि एक बच्चे का पिता सेना में है, तो उसको रिहा किया जाता है. काटा पहाड़ी स्कूल के हेडमास्टर को माओवादियों को संरक्षण देने के जुर्म में पकड़ा जाता है. 1998 से पहले लालगढ़ ऐसा नहीं था. गरीबी थी, पिछड़ापन था, पर बारूद की गंध नहीं थी. बूटों की खड़खड़ाहट नहीं थी, बम बरसाने की मुद्रा में गुर्रा रहे हेलिकॉप्टरों की निगरानी नहीं थी.

पूछा जा सकता है, सोचा जा सकता है कि आज लालगढ़ के हालात के ज़िम्मेदार कौन लोग हैं? पुलिस का कहर जारी रहा, बच्चों पर, बूढ़ों पर, महिलाओं पर. एक पुराना घिसा-पिटा तरीका-आम लोगों में आतंक कायम करो और सरकार की साख़ बहाल करो. इससेजनाक्रोश जितना उबल सकता था, उससे कहीं ज़्यादा उबला. आदिवासियों ने पुलिस संघर्ष विरोधी जनसाधारणेर कमेटी बनाई. इस तरह पुलिस और उसके साथ मिलकर काम करते आ रहे माकपा काडरों के लिए गाली की तरह इस्तेमाल किये जाने वाले शब्द हरमाद वाहिनी के खिलाफ़ जंग का ऐलान हो गया. रास्ते काटकर बंगाल सरकार की पुलिस और अधिकारियों का प्रवेश निषेध कर दिया गया. फिर भी अमन का एक रास्ता बचा था. संघर्ष समिति ने लोकसभा चुनावों से पहले कहा था कि अगर पुलिस जनता पर किए गए अत्याचारों के लिए माफी मांग लेती है तो वे अपना आंदोलन ख़त्म कर देंगे. 33 साल से राज कर रही वाम सरकार के मुखिया ने नंदीग्राम के अत्याचार के लिए तो र्मोंी मांग ली, पर लालगढ़ के पुलिसिया जुल्म के लिए माफी मांगने में उसे शायद शर्म आई. नतीजा यह हुआ कि पश्चिम मिदनापुर के कम से कम दर्जनों बूथों पर मतदान का बहिष्कार हुआ. आज लालगढ़ ज़ंग का मैदान बन गया है. एक ऐसी जंग, जिसके उस पार भी अपने ही परिजन....

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हम नहीं सुधरेंगे

भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी का संदेश


भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक हर मायने में विफल रही. इस बैठक के बाद भाजपा पहले से कहीं ज़्यादा भ्रमित नज़र आ रही है. नेतृत्व और विचारधारा को लेकर, संगठन को मज़बूत करने की बात पर, युवाओं को पार्टी में जगह देने के मसले पर, संघ के साथ संबंध के मुद्दे पर और हिंदुत्व के रूप और मायने पर भाजपा में दिशाहीनता की स्थिति है. हार की वजहों को ढूंढने निकली भाजपा का हाल यह रहा कि इस बैठक के ज़रिए पार्टी की अंदरूनी कलह सबके सामने आ गई. राष्ट्रीय कार्यकारिणी में नेता एक-दूसरे पर निशाना साधते नज़र आए. पार्टी के अंदर मौजूद सारे गुट सबके सामने आ गए. पार्टी के शीर्ष नेताओं ने अपने बयानों से कार्यकर्ताओं को निराश किया और बची-खुची कसर दूसरी पंक्ति के नेताओं ने आपस में लड़कर पूरी कर दी. भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी का हाल किसी पिटे हुए बॉलीवुड फिल्म की तरह रहा. इसकी पृष्ठभूमि शानदार थी, ट्रेलर बनाने में भी ख़ासी मेहनत की गई, ज़ोरदार प्रचार भी किया गया, लेकिन भाजपा की इस फिल्म में कोई क्लाइमेक्स ही नहीं था-बहुत शोर सुनते थे, पहलू में दिल का, जो चीरा तो क़तरा-ए-ख़ूं भी न निकला. दो दिनों की सिरफुटव्वल का कोई नतीजा कुछ भी नहीं निकला. लालकृष्ण आडवाणी ने इस राष्ट्रीय कार्यकारिणी में पार्टी को फिर से उसी दलदल में धकेल दिया जिसकी वजह से पार्टी गर्त में गई है. आडवाणी ने हार के लिए ज़िम्मेदार लोगों का बचाव किया. प्रेस में पार्टी के अनधिकृत रूप से रणनीतिकार बनकर पार्टी के ही ख़िला़फ लिखने वाले अपने चहेते सलाहकारों को बचाया. सबसे हैरान करने वाली बात यह रही कि आडवाणी संगठन को बचाने के लिए देश भर की यात्रा पर निकलेंगे, लेकिन उन्हें कौन बताए कि जब कार्यकर्ता ही पार्टी से रूठ जाएंगे तो आडवाणी की यात्रा भी पिछली यात्रा की तरह बेमानी ही हो जाएगी.


आडवाणी का हठ
लालकृष्ण आडवाणी के हठ का भी जबाव नहीं. हार के बाद उन्होंने स्वेच्छा से संन्यास की घोषणा कर दी थी. बाद में अपने सलाहकारों और उनके नाम पर राजनीति करने वाले नेताओं के कहने पर वह लोकसभा में न स़िर्फ नेता प्रतिपक्ष बने, बल्कि अब पार्टी को फिर से खड़ा करने के लिए देश भर की यात्रा का ऐलान भी कर दिया. आडवाणी ने अपने गुट के नेताओं का पुरज़ोर बचाव किया. भाजपा के चुनाव मैनेजरों के बचाव में उन्होंने एक से एक दलीलें दीं. कुछ सच कुछ झूठ. आडवाणी ने भाजपा की सचिन तेंदुलकर से तुलना की. यह अजीबोगरीब है. उन्होंने कहा कि सचिन भी तो 99 पर आउट हो जाते हैं. यह तुलना ग़लत है, क्योंकि सचिन क्रिकेट के सबसे महान बल्लेबाज हैं. क्या आडवाणी खुद को या भाजपा को राजनीति का सचिन मानते हैं. अगर भाजपा की तुलना किसी क्रिकेटर से की जाए तो वह विश्वकप जीतने के बाद वेस्टइंडीज सीरीज में मोहिंदर अमरनाथ से की जानी चाहिए, जिन्होंने इस सीरीज में शून्य पर आउट होने का विश्व रिकार्ड बनाया था. आडवाणी जी को समझना चाहिए कि भाजपा यह चुनाव एक रन से नहीं हारी है, वह दूसरी बार जनता द्वारा नकार दी गई पार्टी बन चुकी है. आडवाणी का पूरा भाषण पार्टी के रणनीतिकारों को बचाने की कवायद रही. उन्होंने कुछ नेताओं की आपसी छींटाकशी पर भी...


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अस्तित्व बचाने की कवायद है, माया-भजन समझौता


संजीव पांडेय

अपने राजनीतिक जीवन के सबसे बुरे दिन देख रहे भजनलाल ने अंतिम जुआ खेला है. कई तरफ से थपेड़े झेल रहे भजनलाल ने अब मायावती के सहयोग से हरियाणा में कांग्रेस को घेरने की योजना बनाई है. आने वाले विधानसभा चुनाव में भजनलाल की हरियाणा जनहित कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी मिलकर चुनाव लड़ेगी. हरियाणा विधानसभा चुनाव में अपनी जीत निश्चित मान रही कांग्रेस के लिए निश्चित रुप से यह बुरी खबर है. वोट बैंक के लिहाज से बसपा और भजनलाल की हरियाणा जनहित कांग्रेस का इकठा होना ख़तरनाक है. संभावना जताई जा रही है कि आगामी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को कड़ी टक्कर मिलेगी. राज्य में एक बार फिर गैर जाट मतदाताओं को इकट्ठा होने का अवसर मिला है. उधर उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के प्रहारों को झेल रही मायावती भी कांग्रेस को स्पष्ट संकेत दे रही है कि आने वाले समय में वे यूपी से बाहर गैर कांग्रेसी दलों से समझौता करेंगी. इससे निश्चित तौर पर कांग्रेस की परेशानी बढ़ेगी. मायावती की यह रणनीति यूपी में कांग्रेस को रक्षात्मक रुख लाने पर मजबूर कर सकती है.

18 जून को लखनऊ में मायावती, भजनलाल और उनके बेटे कुलदीप ने संयुक्त रुप से अपनी रणनीति का खुलासा किया. इस रणनीति के तहत हरियाणा विधानसभा चुनाव दोनों मिल कर लड़ेंगे. बड़े दल की भूमिका में भजनलाल की हरियाणा जनहित कांग्रेस रहेगी, जबकि बसपा छोटे भाई की भूमिका में रहेगी. भजनलाल की पार्टी पचास सीटों पर चुनाव लड़ेगी. कुलदीप विश्नोई मुख्यमंत्री के उम्मीदवार होंगे. बसपा चालीस सीटों पर लड़ेगी. बसपा को सता में आने के बाद डिप्टी सीएम पद मिलेगा. वह दलित वर्ग से होगा. गुप्त तरीके से दिए गए इस समझौते से कांग्रेसी उलझन में फंस गए. आनन-फानन में हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने कहा शून्य प्लस शून्य बराबर शून्य. हालांकि यह बयान सच्चाई बयां नहीं करता. समझौते को जिस गुपचुप तरीके से अंजाम दिया गया उससे कांग्रेसी हैरान हैं. कांग्रेस को पता तक नहीं चला. राज्य सचिवालय की गैलरी में सक्रिय पत्रकारों को इसकी जानकारी तक नहीं मिली. सीधे लखनऊ से खबर आई, समझौता हो गया. पत्रकारों के फोन बजने लगे. क्योंकि सब कुछ अप्रत्याशित था. बसपा ने इस बार कांग्रेस को बेवकूफ बनाने के लिए अलग इशारा कर रखा था. बसपा नेता यह संकेत दे रहे थे कि विधानसभा चुनाव में समझौते के लिए उनकी बातचीत इनेलो के ओमप्रकाश चौटाला से चल रही है. इस समझौते के पीछे तर्क यह था कि इनेलो के जाट और बसपा के दलित समीकरण से राज्य विधानसभा में कांग्रेस को घेरा जाएगा. पर सारा खेल ही उल्टा हो गया.

उधर इन सारी परिस्थितियों में हजकां के अंदर हो रहे विद्रोह रुकने के संकेत है. हरियाणा जनहित कांग्रेस के दो नेता सुभाष बतरा और पूर्व मंत्री कृष्णमूर्ति हुड्डा ने हाल ही में विद्रोह कर दिया था और पार्टी अध्यक्ष कुलदीप विश्नोई को ही पार्टी से निकालने का दावा किया था. उन्हें लग रहा था कि भजनलाल अब गए दिन की बात हो गए. उनकी कोई राजनीतिक हैसियत नहीं है क्योंकि भजनलाल खुद काफी मश्किल से हिसार से लोकसभा जीत कर आए है. उधर लोकसभा चुनाव में 59 विधानसभा क्षेत्रों में कांग्रेस को मिली बढ़त ने हरियाणा जनहित कांग्रेस के नेताओं को निराश कर दिया था.

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मायावती जी, ध्यान दीजिए

सप्तसागर झील को ख़त्म करने की साज़िश




आर के यादव और बी.डी शर्मा की रिपोर्ट

भारत की राजनैतिक, धार्मिक और सामाजिक स्थिति में अयोध्या का महत्व किसी से छुपा नहीं है. यही वह स्थान है, जहां से राम के नाम पर शुरू हुई राजनीति की वजह से हिंदुस्तान की केंद्रीय और प्रादेशिक सत्ता में भूचाल आ गया. धर्म के नाम पर भाजपा की राजनीति राममंदिर के निर्माण को लेकर केंद्रीय सत्ता में चमकी. इसी अयोध्या में भगवान राम के अस्तित्व से ज़ुडा और कई एकड़ क्षेत्र में फैली सप्तसागर नाम की झील आज शासन, प्रशासन और भू-माफियाओं के कारण अपनी पहचान खो चुकी है. इसको बचाने के लिए अयोध्या में कोई महंत या भाजपा का कोई संगठन भी नहीं आया. यदि सप्तसागर का नाम आज के अयोध्या में लिया जाए तो वहां सप्तसागर कॉलोनी के अलावा कुछ नहीं मिलेगा. सप्तसागर के नाम से जो खाली ज़मीन पड़ी है, उसमें भी अधिकतर को बड़े रसूख वालों के नाम पट्टा कर दिया गया है. लोग मकानों के निर्माण में लगे हैं. इस काम में विकास प्राधिकरण भी पीछे नहीं है. ज़मीन का सौदा बाद में होता है और उसका ऩक्शा पहले बन जाता है. धर्म के ठेकेदारों को इस सप्तसागर के अस्तित्व को ख़त्म करने के लिए मोटी रकम मिल रही है, और इसीलिए आज तक किसी ने इस धरोहर को बचाने की पहल नहीं की.


सप्तसागर का ऐतिहासक महत्व
इतिहासों में वर्णित है कि मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम के राज्याभिषेक के अवसर पर इसमें सातों समुद्रों और समस्त तीर्थो का जल डाला गया, तब से इसका नाम सप्तसागर पडा. ऐसा भी पुराणों में वर्णित है कि सीता नित्य अपनी सहचरियों के साथ कनक भवन से निकल कर सप्तसागर में स्नान कर सप्तसागर के तट पर विराजमान काली जी कीपूजा किया करती थीं. राज परिवार के लोगों का जब विवाह होता था तो उनकी मौरी सप्तसागर में ही विसर्जित की जाती थी. अयोध्यामहात्म्य पुस्तक के अनुसार श्री अयोध्यानगरी के मध्य भाग में रमणीय सप्तसागर नाम का कुंड है जो इच्छित फल देने वाला है. हर पूर्णिमा को समुद्र स्नान करने से जो पूर्ण फल प्राप्त होता है, वही फल इस कुंड में किसी भी दिन स्नान करने से मिलता है. यहां की प्रसिद्घ वार्षिक यात्रा...


कौन है सप्तसागर की जमीन का असली मालिक
आज़ादी के बाद गांवों में ज़मींदारी व्यवस्था तो ख़त्म हो गई थी लेकिन शहरी क्षेत्रों में ज़मींदारी व्यवस्था नहीं ख़त्म हो सकी. अयोध्या में सप्तसागर पर अयोध्या स्थित बड़ा स्थान तथा राजगोपालाचारी मंदिर का आधिपत्य रहा. सप्तसागर की सुरक्षा इन्हीं दो मंदिरों के कर्ताधर्ताओं के विवेक पर निर्भर रही. जब तक धर्मनगरी में धार्मिक आंदोलन चलते रहे, तब तक सप्तसागर झील के रूप में विद्यमान रहा और अयोध्या का पानी उसमें इकट्ठा होता रहा. यह लगता रहा कि सप्तसागर की विरासत ज़िंदा है.आज हालात बदल गए हैं. इस ज़मीन पर दलालों एवं भूमाफियों की नज़र लगभग तीन वर्ष पहले लगी थी. उन्होंने बड़ा स्थान तथा राजगोपालाचारी मंदिरों के महंतों को प्रलोभन देना शुरू किया. साथ ही दलालों ने मोटी कमाई के लालच में ग्राहकों को जुटाना शुरू किया, ये दलाल स्वयं तो पट्टा करते नहीं, केवल ग्राहकों को ढूंढते हैं और पट्टे का काम बड़ा स्थान तथा उससे जुड़े पट्टेदार स्वयं करते है, इन महंतों का कार्य भी इस तरह से चलता है कि किसी को यह शक न हो कि पट्टा कब और कैसे हो गया. इसकी भनक किसी को न लगे, इसके लिए इन दोनों मंदिरों में ज़मीनों के रख-रखाव व खरीद-फरोख़्तके लिए अलग विभाग हैं. ज़मीन की बिक्री कितने में होती है, सौदा कौन करता है, इससे इन महंतों को मतलब...


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नदियों को भी बेचने को तैयार सरकार

कुछ वर्ष पहले ताजा पेयजल के मुद्दे पर एक सम्मेलन का आयोजन किया गया था, जिसमें क़रीबन 130 देशों ने शिरकत की थी. इसमें निष्कर्ष यह निकला था कि बहुत जल्द वह वक्त भी आएगा, जब पानी का वितरण पाइपलाइन और टैंकरों के जरिए किया जाएगाऔर 21 वीं सदी में पानी ही युद्धों का सबब बनेगा. फिलहाल करीबन एक अरब 30 करोड़ लोगों को पेयजल मुहैया नहीं है और लगभग दो अरब 40 करोड़ लोगों को सफाई का पानी उपलब्ध नहीं है. यह मौन ख़तरा लगभग 6000 लोगों की रोज़ना जान लेता है. भविष्य के आसार तो यह भी दिखते हैं कि 2015 तक जनसंख्या की बढ़ोतरी और प्रवास लगभग एक अरब साठ लाख लोगों को पानी के लिए संघर्ष पर मज़बूर करेगा. दो अरब लोगों को सफाई के लिए पानी की ज़रूरत महसूस होगी. पानी के लिए मानवता की मांग दंग करने वाली हद तक यानी 30 फीसदी तक बढ़ेगी. भारत में दूसरे देशों की तुलना में हालात और भी खराब हैं, हम यहां केवल कुछ ज्वलंत उदाहरण देंगे, जिससे पानी की कमी होने के सबूत बिल्कुल स्पष्ट हो जाते हैं. उदाहरण के लिए-
1. दिल्ली-हरियाणा सीमा पर रोहतक रोड पर पानी की सख्त कमी की वजह से दंगे हुए. इसमें तीन पुलिस अधिकारियों के साथ ही लगभग 15 लोग घायल हुए और कई आते-जाते वाहनों को नुकसान पहुंचा.
2. पूर्वी दिल्ली के गोकुलपुरी में पानी को लेकर हुए दंगे ने सांप्रदायिक रूप ले लिया. इसमें दो लोग घायल हुए.
3. राजकोट में लोगों ने एक मृतक के शरीर को वैसे ही छोड़ दिया, जैसे ही उन्होंने पानी के टैंकर को देखा. कारण स्पष्ट था. अंतिम संस्कार तो बाद में भी किया जा सकता है, लेकिन पानी के टैंकर को नहीं छोड़ा जा सकता है.
4. उत्तर भारत में कोई भी विवाह समारोह किसी वधू के कुंआ पूजन...

भारत में नदियों को बेचने की साज़िश
विश्व बैंक और आईएमएफ के इशारे पर भारत में भी पानी को बड़ी कंपनियों और बहुराष्ट्रीय निगमों को बेचा जा रहा है. यहां तक कि नदियों को भी नहीं बख्शा गया. गुणवत्ता और सबको उपलब्धता के नाम जो ख़तरनाक खेल हो रहा है, वह पूरी तरह से ग़ैर-बराबरी और जनता के साथ अन्याय करनेवाला है. यह किसी एक राज्य में या शहर में नहीं हो रहा है. उत्तर से लेकर दक्षिण और पूर्व से लेकर पश्चिम तक भारतीय जनता को आसानी से मिलनेवाला पानी विदेशी कंपनियों को बेचा जा रहा है, जो बदले में उससे सैकड़ो गुणा मुनाफा कमाएंगी. ख़ुद हम उस पानी को ऊलजलूल दाम पर ख़रीदेंगे औऱ बदले में हमें पानी भी नसीब नहीं होगा. या होगा, तो प्रदूषित और ज़हरीला. वैसे तो, हम आपको राज्यवार ब्योरे भी समयानुसार मुहैया कराएंगे, लेकिन पहले देख लें कि किस तरह नदियों की धारा को भी महज कुछ लोगों की स्वार्थ को पूरा करने का...

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पश्चिम बंगालः अगली बार ज्वालामुखी

वाममोर्चे ने बंगाल में भले ज़मीन खो दी हो, पर क्या किसी ने इस पर ध्यान दिया था? कांग्रेस ने 1962 और 1967 में हक़ीक़त को महसूस नहीं किया और क्या कुछ देर पहले तक किसी ने इसकी दूसरी व्याख्या की थी़ वर्ष 1962 में वामपंथी राष्ट्रवादी दृष्टिकोण से ग़लत थे. वजह यह कि उसी साल अक्तूबर में हुए त्रासद युद्ध में चीन के आक्रामक रवैए की उन्होंने निंदा नहीं की थी. ज्योति बसु ने अपने कॉमरेडों के साथ कुछ महीने जेल में भी काटे थे. पार्टी ने आंतरिक तौर पर अपनी ग़लती को सुधारा. चीन समर्थक अतिवादी अपने ढंग से क्रांति करने के लिए पार्टी से अलग हो गए. नक्सलियों (यह नाम उत्तरी बंगाल के छोटे से गांव नक्सलबारी के कारण हुआ) ने माओत्से तुंग को अपना भी चेयरमैन घोषित कर दिया. यह अलग बात है कि माओ इस बात से ख़ुश थे या नहीं, कह नहीं सकते. वामपंथी आधिकारिक तौर पर टूट चुके थे. टूटा हुआ धड़ा सीपीआई(एम) अधिक संतुलित था. यह कोलकाता के कॉलेज स्ट्रीट की स्वतंत्रता बाद की यह पीढ़ी के मनमाफिक रेडिकल था और उनके नौकरीपेशा अभिभावकों के लिए उनकी नौकरी ख़त्म करने पर तुले नक्सलियों की तुलना में अहिंसक भी. वैसे भी, भारत में समस्या सुलझाने का अनूठा तरीक़ा यही है कि समस्या की ओर से पीठ मोड़कर खड़े हो जाएं. कांग्रेस भी ऐसी उठापटक से अछूती नहीं थी. प्रणव मुखर्जी को वह समय याद होगा...
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1984 सिख दंगा

त्रिलोकपुरी में मौत का नंगा नाच

यहां डरावना सन्नाटा पसरा हुआ था. हवा भी मानो सहम कर चल रही थी. माहौल में मानो दहशत और डर घोल दिया गया था. इंदिरा गांधी की उनके एक अंगरक्षक ने हत्या कर दी, यह ख़बर देश के विभिन्न कोने में पहुंच चुकी थी. शाम पांच बजे तक त्रिलोक पुरी और पूर्वी दिल्ली के चारों ओर के इलाक़े में हलचल मची हुई थी, लेकिन 31 अक्तूबर 1984 की शाम को उस क्षेत्र में एक परिंदा भी पर नहीं मार सका. इस मध्यम वर्गीय क्षेत्र में सिखों की संख्या काफी अधिक थी. इनमें से अधिकतर छोटे-मोटे दुकानों के मालिक थे. जैसे ही ख़बर उन तक पहुंची, उन लोगों ने अपनी दुकान का शटर बंद कर अपने घर की ओर चल दिए. अफवाहें तेज़ी से फैलती रही. किसी ने कहा सिख उत्सव मना रहे थे तो किसी ने कहा कि सिखों ने लड्‌डू बांटें. इस तरह की अफवाहों का दौर चलता रहा. वास्तविकता कुछ और थी. सिख परिवारों के पुरुष, औरत और बच्चे घरों में बंद हो गए. कुछ गुरुद्बारों में रहने चले गए. वह समुदाय भयभीत और तनावग्रस्त था. वयस्क शायद ही खाते थे और रात-रात भर जगते थे. जैसे ही सुबह का उजाला फूटा, कुछ ने ख़ुद को दिलासा देना शुरू कर दिया कि सबसे बुरा पल बीत चला है. आख़िरकार, रात किसी न किसी तरह बीत ही गई थी. पूरी रात में लूटपाट और दंगे की एकाध ही घटना हुई थी. अधिकतर सिखों को यह विश्वास था कि इस दुखद घटना के बाद भी दिल्ली शांत रहेगी, क्योंकि यह भारत की राजधानी है. पुलिस और प्रशासन 24 घंटे के अंदर स्थिति पर काबू पा सकता है. हालांकि, यह विश्वास झूठा ही साबित हुआ. दिल्ली में खूनी खेल की शुरुआत इंदिरा गांधी की हत्या के 24 घंटे बाद हुई. पहले सिख की हत्या एक नवंबर की सुबह 10 बजे हुई. त्रिलोकपुरी में सुबह दस बजे के बाद हिंसा भड़क उठी. उपद्रवियों ने लोहे की छड़ों, तलवार, मिट्टी के तेल और बंदूकों से लैस होकर सिखों के घरों पर हमला करना शुरू कर दिया. उपद्रवी पूरी तरह तैयार थे और इसका नेतृत्व कांग्रेस के प्रमुख नेता कर रहे थे. इनमें रामपाल सरोज (इलाके के कांग्रेस अध्यक्ष), डॉ. अशोक गुप्ता( एमसीडी में पार्षद) शामिल थे. स्पष्ट रूप से उस रात पूर्वी दिल्ली के कांग्रेस सांसद एचकेएल भगत ने अपने समर्थकों को सिखों से बदला लेने के लिए उकसाया और एकत्रित किया. जब उपद्रवियों ने सिखों के घरों पर हमला करना शुरू किया तो...

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पाकिस्तान के उदारवादी मौलवियों का कैसा होगा कल

अज्ज आक्खां वारिस शाह नूं किते क़बरां बिच्चों बोलते अज्ज किताबे-इश्क दा कोई अगला वरका खोल..इक्क रोई सी धी पंजाब दी, तू लिख लिख मारे बैनअज्ज लक्खां धीयां रोन्दियां, तैनूं वारिस शाह नूं कहनउठ दर्दमंदां दिय दर्दिया..उठ तक्क अपणा पंजाबअज्ज बेल्ले लाशां बिच्छियां ते लहू दी भरी चिनाब.. अमृता प्रीतम
अक़दस वहीद की रिपोर्ट

अमृता प्रीतम की वारिस शाह के लिए लिखी ये पंक्तियां (लेखिका ने यह पंक्तियां बंटवारे के व़क्त हुए नरसंहार के बाद लिखी थीं) आज के पाकिस्तान को बख़ूबी बयां करती है. हाल ही में नोशेरा और लाहौर के धमाकों ने हुक़ूमत को हिला कर रख दिया. आज पंजाब तबाही और बर्बादी के एक ऐसे मुकाम पर खड़ा है जहां जरूरत है कि वारिस शाह अपनी कब्र से बाहर आएं और लहूलुहान हुए पंजाब को बचाने की कोशिश करें. पंजाब में तथाकथित मुसलमान ही मुल्लाओं और मौलवियों का क़त्ल कर रहे हैं. पाकिस्तान का तालिबानीकरण अपने चरम पर है और ये शैतान पाकिस्तान को तबाह करने की पूरी कोशिश कर रहे हैं. इन धमाकों को अंजाम देकर आतंकी शैतानों ने साफ कर दिया है कि अपने मंसूबों को पाने के लिए वे इंसानियत की हर सरहद पार कर सकते हैं. जुम्मा-ए-रोज़,12 जून 2009 को, लाहौर और नोशेरा में हुए धमाकों ने इन शैतानी आतंक़ियों के वहशीपन और दरिंदगी को हमारे सामने रख दिया. इन दोनों हमलों में पाक मस्ज़िद और मदरसे को निशाना बनाया गया. इन दरिंदों ने उनका कत्ल ऐसे व़क्त किया, जब वे खुदा की ख़िदमत कर रहे थे. मासूम निर्दोष बच्चे क़ुरान की आयतें पढ़ रहे थे. फिर भी ये दहशतगर्द खुद को खुदा का रहनुमा बता रहे हैं. क्या फर्क़ है इनमें और उन बेगुनाहों में. क्या उनका ख़ुदा अलग है. या फिर उनकी लड़ाई किसी ताकत को हासिल करने के लिए है या वह किसी अलग मसाइल की जंग लड़ रहे हैं? 12 जून को ही जुम्मा की नमाज़ के तुरंत बाद एक आत्मघाती हमलावर ने बारह किलो बारूद के साथ जामिया नैमिया में धमाका किया. इस धमाके की चपेट में मदरसे के छात्र और आसपास के इलाके के लोग आए. इसी धमाके में पाकिस्तान के सबसे सम्मानित मुल्ला मौलाना सरफ़राज़ नियामी, उनके निकटतम मुल्ला मौलाना खलीलुर रहमान और अब्दुल रहमान की मौत हो गई. इनके साथ-साथ इन धमाकों में एक पत्रकार समेत मदरसे के दो छात्रों की भी मौत हो गई. ये धमाके जिस व़क्त हुए, मदरसे में एक हजार बच्चे मौजूद थे. धमाके के बाद मौके से एक संधिग्ध को गिरफ़्तार किया गया है जिससे पूछताछ चल रही है. मामले की जांच कर रहे अधिकारी डॉक्टर हैदर अशरफ ने बताया कि हमलावर ने अपने कमर पर बारूद की पेटी बांध रखी थी और उसकी पहचान नहीं की जा सकती. डॉ. अशरफ ने बताया कि हमलावर सुरक्षा जांच के कारण मदरसे में उस व़क्त नहीं घुस पाया, जब वहां नमाज पढ़ी जा रही थी. लेकिन नमाज के बाद जैसे ही पुलिस कर्मी मदरसे से चले गए हमलावर ने अंदर घुस कर खुद को उड़ा लिया. ग़ौरतलब है कि मौलाना सरफ़राज़ नियामी ने ख़तरे की आशंका के बावजूद सुरक्षा लेने से मना कर दिया था.इस तरह से लाहौर के मशहूर मौलाना सरफ़राज़ नियामीं की हत्या को अंजाम देकर तालिबानियों ने साफ कर दिया है कि वह किसी भी हद तक जाकर ऐसे लोगों का सफाया कर देंगे, जो उनकी मुख़ालफत करेगा. दरअसल, मौलाना नियामी लाहौर के एक उदारवादी मौलवी थे और तालिबान के ख़िलाफ वह शुरू से ही आवाज़ उटाते रहे हैं. नियामी मानते थे कि ज़ि़हाद महज कोई राज्य ही चला सकता है और तालिबान जैसे आतंकी संगठनों को जिहाद चलाने का हक नहीं है. इसके साथ ही नियामी ने यह फतवा भी जारी किया था कि आत्मघाती हमले गैर-इस्लामी हैं. अपने इस रुख के कारण जहां नियामी समाज के कई मॉडरेट मुल्लाओं के बीच जगह बनाने में कामयाब हुए थे, वहीं तालिबान को उनका विरोध अखरने लगा. लिहाज़ा, तालिबान ने उन्हें क़त्ल कर साफ कर दिया कि तालिबानी-ज़िहाद का विरोध करने वालों को तालिबान साफ कर देगा.फिर भी, इसमें कोई हैरत की बात भी नहीं कि तालिबान किसी मुल्ला या मौलवी पर हमला...
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