चौथी दुनिया पढ़िए, फैसला कीजिए

रविवार, 18 जनवरी 2009

डेढ़ दशक बाद नया तेवर

चौथी दुनिया जब पहली बार हिन्दी पाठकों के हाथों में 1986 में आया तो उसके मास्टहेड पर गर्वोक्ति की यह पंक्ति भी छपी कि हिन्दी का पहला साप्ताहिक अखबार है. तकरीबन छह साल तक अपने तेवर और निर्भीक रचनाधर्म को सिरजनेवाली पत्रकारिता की अलख जगाने के बाद यह अखबार पाठकों के हाथों से वैसे ही असमय ही छिन गया जैसे दिनमान, धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान और सांचा जैसी पत्रिकाएं. हिन्दी जगत में अब भी इन पत्रिकाओं के बंद होने का रूदन जारी है. ऐसा माननेवालों की कमी नहीं है कि इन पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन के बंद होने के साथ ही गंभीर और रचनात्मक पत्रकारिता का एक दौर समाप्त हो गया. चौथी दुनिया की छह साल की छोटी किन्तु सफल पारी की कप्तानी जिस संपादक ने बखूबी की, एक बार फिर उन्हीं के नेतृत्व में यह साप्ताहिक अखबार सामने आ रहा है. बातचीत में वरिष्ठ पत्रकार और एक बार फिर चौथी दुनिया की टीम को लीड करने जा रहे संतोष भारतीय बताते हैं- "वे पुराने तेवर के साथ ही चौथी दुनिया की वापसी चाहते हैं. उनके लिए यह सफर वहीं से आगे बढ़ रहा है जहां करीब डेढ़ दशक पहले उन्होंने इसे छोड़ा था." उनका उत्साह भरोसेमंद इसलिए भी जान पड़ता है क्योंकि इस बार वे व्यावसायिक तौर पर भी ज्यादा तैयारी और मुस्तैदी के साथ सामने आ रहे हैं. चौथी दुनिया के प्रकाशक अंकुश पब्लिकेशंस के प्रमुख कमल मोरारका ने इस अखबार को व्यावसायिक मोर्चे पर कामयाब बनाने के लिए पहले 35 करोड़ की योजना बनाई जो बढ़ते-बढ़ते 45 करोड़ तक पहुंच गयी है.

सवाल है कि चौबीस घण्टे के दर्जनों खबरिया चैनलों और सनसनी मार्का पत्रकारिता के दौर में गंभीर और मुद्दों पर आधारित पत्रकारिता के लिए कितना स्पेश बचता है? संतोष भारतीय इस सवाल के जवाब में हिन्दी पत्रकारिता की ऐतिहासिकता को 1977 के पूर्व और पश्चात्य की विभाजक रेखा बांटकर देखने का आग्रह रखते हैं. उनके मुताबिक आधुनिक हिन्दी पत्रकारिता स्वर्णिम दौर तो वही माना जाएगा जब अज्ञेय, रघुवीर सहाय, मनोहर श्याम जोशी और कमलेश्वर जैसे साहित्यकारों के नेतृत्व में पत्र-पत्रिकाएं निकलीं. दुर्भाग्य से 1977 के बाद पत्रकारिता की यह धारा क्षीण होती गयी. खास तौर पर रविवार पत्रिका का नाम लेते हुए भारतीय कहते हैं इस पत्रिका का संपादक 30 वर्षीय तेज तर्रार पत्रकार एम जे अकबर को बनाया गया और अकबर ने अपने संपादनकाल के महज तीन महीने की अल्पावधि में ही संपादन का यह दायित्व सुरेन्द्र प्रताप सिंह के हाथ में सौंप दिया और यहीं से हिन्दी पत्रकारिता की दिशा निर्णायक रूप से बदल गयी. हर तरफ से तेज-तर्रार युवा पत्रकारों का जोर बढ़ा और इस तरह पत्रकारिता का पुराना सांचा देखते-देखते बदल गया.

इस बदलाव के दौर में चौथी दुनिया ने एक बार फिर न सिर्फ खबरों के ठेंठपन और रचनात्मक पत्रकारिता का आदर्श समन्वय स्थापित करने का प्रयास किया बल्कि इस प्रयोग को नयी ऊंचाई भी दी. यह उस सफलता और ऊंचाई का ही नतीजा है कि 1986-92 के बीच चौथी दुनिया से जुड़े पत्रकारों में से ज्यादातर आज विभिन्न टीवी चैनलों या पत्र-पत्रिकाओं में जवाबदेही के बड़े पदों पर हैं. इन पत्रकारों में रामकृपाल सिंह (नभाटा), कमर वहीद नकवी (आज तक), विनोद चंदोला (पेकिंग रेडियो), शम्मी सरीन (दैनिक भास्कर), अन्नु आनंद (विदुर), राजीव कटारा (हिन्दुस्तान) और आलोक पुराणिक (स्तंभकार) के नाम शामिल हैं. अपनी नयी पारी में चौथी दुनिया की तैयारी पूरे देश में करीब 2000 पत्रकारों का नेटवर्क स्थापित करने का है. भारतीय फिर से एक बार पत्रकारिता की बदलती दुनिया में चौथी दुनिया को स्थापित करने को लेकर खासे उत्साहित हैं. वे बताते हैं कि जिस तरह विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं से लेकर टीवी चैनलों से लोग उनके इस अभिक्रम से जुड़ने का उत्साह दिखा रहे हैं, उसे देखते हुए उन्हें फरवरी 2009 से एक बार फिर शुरू होनेवाले चौथी दुनिया के सफर को लेकर काफी भरोसा बंधा है. उम्मीद है नये साल में इस साप्ताहिक अखबार के पुर्नप्रकाशन से हिन्दी पत्रकारिता समृद्ध होगी.

राष्ट्रीय सहारा, नई दिल्ली, रविवार, 18 जनवरी 2008

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चौथी दुनिया दूसरी बार
पहले से सौ गुना ज्यादा तेवर होगा
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