2009 के आम चुनाव में जनता ने मज़बूत नेता, मजबूर नेता और कमज़ोर नेता की बहस को ही ख़त्म कर दिया. लालकृष्ण आडवाणी न सिर्फ चुनाव हारे, बल्कि लौहपुरुष और मज़बूत नेता के ख़िताब से भी हाथ धो बैठे. अब भी भाजपा अगर
उन्हें लौहपुरुष कहना जारी रखती है तो लोगों को हंसी ही आएगी. इसमें कोई शक़ नहीं कि आडवाणी भारतीय राजनीति के मैराथन धावक हैं. छह दशकों से भारतीय राजनीति की मुख्यधारा के वह एक अहम सिपाही रहे. लेकिन जीवन के आख़िरी पड़ाव में उन लोगों पर भरोसा कर लिया जो उनके पूरे किए-धरे को धो डालने की जुगत में थे. अपने जीवन की अंतिम लड़ाई में वह ऐसे सलाहकारों से घिर गए जो अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं और देश की जनता को समझने में अक्षम थे.आडवाणी के सलाहकारों में वे लोग थे जिन्हें चुनावी राजनीति का अनुभव नहीं है. ये लोग टीवी पर बहस करने जाते हैं. एक से एक तर्क देते हैं, जिससे सामने वाला निरुत्तर हो जाता है, या कम से कम ऐसा दिखने तो लगता ही है. लेकिन उन्हें यह बात समझ में नहीं आई कि तर्क से बहस जीती जा सकती है, चुनाव जीतने के लिए तो वोट चाहिए होते हैं. आडवाणी के सलाहकारों में ऐसा कोई नहीं था जिसने चुनाव लड़ा हो, जो जनता के बीच से यानी ज़मीनी संघर्ष से पैदा हुआ नेता या विचारक हो. भाजपा के इन सलाहकारों और रणनीतिकारों में चुनाव लड़ने का अनुभव किसी के पास नहीं है. ये लोग एयरकंडीशन कमरे और टीवी स्टूडियो में अपनी चमक बिखेरते हैं. बात जब ज़मीनी राजनीति की हो तो ये धूमिल हो जाते हैं. ये वही लोग हैं जिन्होंने पिछली बार इंडिया शाइनिंग का नारा बुलंद किया था, जिसके कारण 2004 में पराजय का सामना करना पड़ा. भाजपा की आदत बेपरवाही की बन चुकी है या उसने अपनी ग़लतियों से नहीं सीखने का प्रण कर लिया है. वरना जिन कारणों की वजह से वह 2004 का चुनाव हार गई थी, वही ग़लती कैसे दोहरा सकती थी?...
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