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रविवार, 24 मई 2009

भाजपा को सलाहकारों ने डुबोया

मनीष कुमार

चाल, चिंतन और चरित्र में राजनीति अद्‌भुत होती है. हालिया चुनावी नतीजों ने यह बात बेहद साफ कर दी है. भाजपा के लिए तो और अधिक. कितनी अजीब बात है कि पांच वर्षों तक लालकृष्ण आडवाणी जिस शख्स के इशारे पर फैसले लेते रहे, जिस सलाहकार की हर बात को पत्थर की लकीर मानते रहे, आज वही शख्स हार के लिए आडवाणी को ही ज़िम्मेदार बता रहा है. वह शख्स हैं-सुधींद्र कुलकर्णी. आडवाणी के सलाहकार नंबर वन. उन्होंने चुनाव नतीजे आने के अगलेे ही दिन एक अंग्रेज़ी अख़बार में लिख दिया कि इस चुनाव में आडवाणी एक विजेता के तेवर नहीं दिखा सके. आडवाणी अगर चुनाव के दौरान कुछ कठोर फैसले लेते लिए होते तो शायद भारतीय जनता पार्टी की ऐसी स्थिति नहीं होती. सुधींद्र कुलकर्णी की बातों से तो यही लगता है कि वह समझते हैं कि उनकी सलाह तो सही थी, लेकिन आडवाणी ही उन पर अमल नहीं कर सके. क्या सुधींद्र की नज़र में आडवाणी कड़े फैसले लेने में अक्षम हैं? अब इसका जवाब तो भाजपा के लोग ही दे सकते हैं कि जो सलाहकार भाजपा के ही प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार आडवाणी पर सवाल खड़ा करे, उसकी पार्टी में उपयोगिता क्या है?

2009 के आम चुनाव में जनता ने मज़बूत नेता, मजबूर नेता और कमज़ोर नेता की बहस को ही ख़त्म कर दिया. लालकृष्ण आडवाणी न सिर्फ चुनाव हारे, बल्कि लौहपुरुष और मज़बूत नेता के ख़िताब से भी हाथ धो बैठे. अब भी भाजपा अगर उन्हें लौहपुरुष कहना जारी रखती है तो लोगों को हंसी ही आएगी. इसमें कोई शक़ नहीं कि आडवाणी भारतीय राजनीति के मैराथन धावक हैं. छह दशकों से भारतीय राजनीति की मुख्यधारा के वह एक अहम सिपाही रहे. लेकिन जीवन के आख़िरी पड़ाव में उन लोगों पर भरोसा कर लिया जो उनके पूरे किए-धरे को धो डालने की जुगत में थे. अपने जीवन की अंतिम लड़ाई में वह ऐसे सलाहकारों से घिर गए जो अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं और देश की जनता को समझने में अक्षम थे.
आडवाणी के सलाहकारों में वे लोग थे जिन्हें चुनावी राजनीति का अनुभव नहीं है. ये लोग टीवी पर बहस करने जाते हैं. एक से एक तर्क देते हैं, जिससे सामने वाला निरुत्तर हो जाता है, या कम से कम ऐसा दिखने तो लगता ही है. लेकिन उन्हें यह बात समझ में नहीं आई कि तर्क से बहस जीती जा सकती है, चुनाव जीतने के लिए तो वोट चाहिए होते हैं. आडवाणी के सलाहकारों में ऐसा कोई नहीं था जिसने चुनाव लड़ा हो, जो जनता के बीच से यानी ज़मीनी संघर्ष से पैदा हुआ नेता या विचारक हो. भाजपा के इन सलाहकारों और रणनीतिकारों में चुनाव लड़ने का अनुभव किसी के पास नहीं है. ये लोग एयरकंडीशन कमरे और टीवी स्टूडियो में अपनी चमक बिखेरते हैं. बात जब ज़मीनी राजनीति की हो तो ये धूमिल हो जाते हैं. ये वही लोग हैं जिन्होंने पिछली बार इंडिया शाइनिंग का नारा बुलंद किया था, जिसके कारण 2004 में पराजय का सामना करना पड़ा. भाजपा की आदत बेपरवाही की बन चुकी है या उसने अपनी ग़लतियों से नहीं सीखने का प्रण कर लिया है. वरना जिन कारणों की वजह से वह 2004 का चुनाव हार गई थी, वही ग़लती कैसे दोहरा सकती थी?...
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क्या कहता है बदला हुआ मुस्लिम मिज़ाज

ए.यू.आसिफ

इस बार के आम चुनाव के परिणामों पर नज़र डालते ही सा़फ तौर पर अंदाज़ा हो जाता है कि मुस्लिम रुझान बदला है और कांग्रेस की जो बेहतर स्थिति बनी है उसमें इस बदले हुए रुझान का बड़ा योगदान है. वैसे यह अलग बात है कि इस बदले हुए रुझान में भी उसकी अपनी हस्ती कम या गुम होती हुई प्रतीत हो रही है.
आंकड़ों के अनुसार इस बार पूरे देश से मात्र 29 मुसलमान उम्मीदवार ही निर्वाचित हुए हैं. इनमें उत्तर प्रदेश से सात, पश्चिम बंगाल से छह, जम्मू-कश्मीर से चार, बिहार से तीन, केरल से तीन, असम से दो, तमिलनाडु से दो, आंध्र प्रदेश एवं लक्षद्वीप से एक-एक शामिल हैं. इससे यह अंदाज़ा होता है कि मात्र आठ राज्यों एवं एक केंद्र शासित प्रदेश से ही 15 वीं लोकसभा में मुसलमानों को प्रतिनिधित्व मिल पाया है, जबकि 20 ऐसे राज्य और पांच ऐसे केंद्र शासित प्रदेश हैं जहां से एक भी मुसलमान नई लोकसभा में नहीं पहुंच पाया. हालांकि देश के विभिन्न भागों में 138.2 मिलियन (13.4 प्रतिशत) मुसलमान हैं. जिन राज्यों से कोई भी मुस्लिम प्रतिनिधि नहीं चुना गया है, वे महाराष्ट्र, राजस्थान, गुजरात, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, उत्तरांचल, उड़ीसा, पंजाब, हरियाणा,नगालैंड, मिज़ोरम, मेघालय, त्रिपुरा, अरुणाचल प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, मणिपुर, गोवा एवं सिक्किम हैं. इसी प्रकार बचे हुए केंद्र शासित प्रदेशों चंडीगढ़, अंदमान निकोबार द्वीप समूह, दादर नगर हवेली, दमन व दियु और पांडिचेरी हैं. अजीब बात यह है कि राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली से भी कोई मुस्लिम प्रतिनिधि नहीं चुना गया है.
पार्टियों के लिहाज से भी स्थिति बहुत संतोषजनक नहीं है. इस बार कांग्रेस के 11, बसपा के चार, नेशनल कांफे्रंस के तीन, तृणमूल कांग्रेस के दो, इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग के दो एवं जद (यू)-भाजपा, डीएमके , माकपा, ऑल इंडिया मजलिसे इत्तेहादुल मुसलमीन एवं असम यूनाइटेड डेमोक्रटिक पार्टी के एक-एक मुस्लिम सांसद...




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जनता ने सिखाया बाहुबलियों को सबक

गंगेश मिश्र

स बार के चुनाव से यह स्पष्ट हो गया कि बाहुबली नेता कहे जाने वाले बड़े-बड़े अभियुक्तों को सबक सिखाने का ज़िम्मा अब जनता ने ख़ुद उठा लिया है. उसने ऐसे लोगों से डरना छोड़ दिया है. बुलेट के ख़िला़फ बैलेट को हथियार बना कर इस्तेमाल करने का साहस आ गया है. राजनीति के अपराधीकरण पर नेताओं से अधिक समझदारी का परिचय देने वाले ये मतदाता सचमुच बधाई के पात्र हैं.बाहुबली नेताओं के भरमार वाले उत्तर प्रदेश और बिहार के चुनाव परिणाम इस मायने में विशेष महत्व के हैं. दोनों राज्यों के मतदाताओं ने एक-दो अपवादों को छोड़ कर तमाम नामी बाहुबली नेताओं को चारों खाने चित कर दिया. भिन्न-भिन्न की तरह की कायरता और कुंठाओं को एकजुट कर एक-दूसरे की कमज़ोरियों से ताक़त लेकर अब तक सफल होते चले आ रहे इन आडंबरी गुस्ताख़ चेहरों से मतदाताओं ने अबकी नक़ाब उतार दिया. लेकिन विडंबना देखिए कि मतदाताओं के तमाम जागरूकता के बावजूद पंद्रहवीं लोकसभा में 150 ऐसे सदस्य पहुंचने में सफल रहे, जो उन सभी धाराओं में आरोपित हैं जो किसी को बाहुबली का दर्ज़ा देने के लिए ज़रूरी होते हैं.सुप्रीम कोर्ट के सख़्त रूख़ के कारण मोहम्मद शहाबुद्दीन, पप्पू यादव, सूरज भान सिंह और अमरमणि त्रिपाठी जैसे बाहुबली नेता इस बार चुनाव नहीं लड़ पाए. फिर भी कथित तौर पर अपराधी कहे जाने वाले सैकड़ों नेता लोकसभा का दरवाज़ा खटखटाने के लिए चुनाव मैदान में थे. इतना ही नहीं, क़ानूनी कारणों से जो बाहुबली नेता ख़ुद चुनाव नहीं लड़ पाए, उन्होंने अपनी राजनीतिक विरासत को बढ़ाने की सुपारी पत्नी और अन्य नज़दीकी रिश्तेदारों को सौंप चुनाव मैदान में उतार दिया था. ऐसे नेता आमतौर पर बिहार में थे. जेल में सज़ा काट रहे सीवान के बाहुबली सांसद डॉ. मोहम्मद शहाबुद्दीन ने अपनी विरासत संभालने के लिए पत्नी हिना शहाब को मैदान में उतार दिया था. लालू के शागिर्द रहे शहाबुद्दीन 1996 में पहली बार सीवान से जीतकर लोकसभा में पहुंचे थे. शहाबुद्दीन की धमक देखिए कि हिना का नामांकन पत्र दाख़िल कराने के लिए राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद ख़ुद सीवान पहुंचे थे. शहाबुद्दीन जेल में रहते हुए भी चुनाव प्रचार की कमान ख़ुद संभाले हुए थे. लेकिन आज़ादी के लगभग छह दशक बाद जागी जनता ने अबकी किसी भी तरह की धौंस में आने से मना कर दिया.सुप्रीम कोर्ट के कारण चुनाव नहीं लड़ पाने पर पत्नी के जरिए चुनाव लड़ने वालों में सूरजभान सिंह भी थे. वह पिछली लोकसभा में बलिया से सांसद थे. दबंग भूमिहार जाति से संबंध रखने वाले सूरजभान सिंह के सितारे जब ख़राब हुए तो सज़ा हो गई. परिसीमन में उनका निर्वाचन क्षेत्र बलिया का वजूद भी ख़त्म हो गया. ऐसे में उन्होंने पत्नी वीणा सिंह को लोजपा के टिकट पर नवादा से चुनाव मैदान में उतारा था. लेकिन सफेद पैंट-शर्ट और जूते के शौकीन सूरजभान सिंह की चमक मतदाताओं ने फीकी कर दी.यही हाल कोसी क्षेत्र में सक्रिय रहे राजेश रंजन...


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नाराज जनता का शिकार हुआ वाममोर्चा

राहुल मिश्र

बंगाल और केरल की जनता ने कथनी और करनी में अंतर रखने वाली पार्टियों को इस चुनाव में सजा दी. इन राज्यों वाममोर्चा की ऐसी हार हुई कि अब इनके नेता चेहरा छुपाए घूम रहे हैं. बंगाल की हार इतनी शर्मनाक है कि मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने तो इस्तीफा देकर अपनी साख बचाने की कोशिश की. चुनाव में हार के बाद बाममोर्चा दुविधा में फंसी है. ये दुविधा विचारधारा को लेकर, संगठन और सहयोगियों को लेकर है. बंगाल और केरल की जनता ने न सिर्फ वामपंथ के किले को ढ़हा दिया, इस मोर्चे को ये संकेत दिया कि कथनी और करनी में फर्क रखकर जनता को मूर्ख नहीं बनाया जा सकता है. 2009 के चुनाव में बंगाल और केरल की जनता ने वाममोर्चे के इस विरोधाभास को समझ गई और दंडित किया.
15वीं लोकसभा के लिए हुए मतदान में वामदलों को महज 28 सीटें हासिल हुईं, जो पिछले तीस वर्षों में उनका सबसे न्यूनतम आंकड़ा है. इससे पहले 2004 में वामदलों के पास लोकसभा की 60 सीटें थी और वह दिल्ली की सत्ता के केंद्र में बैठे नीतिगत फैसलों को सीधे तौर पर प्रभावित कर रहे थे. इन पांच सालों के दौरान राष्ट्रीय स्तर पर वामदलों के राजनीतिक आचरण पर जनता ने जनादेश दिया और आज वामदल हतप्रभ है, उन्हेंे अपने कारगुजारी पर ही सोचने की नौबत आ गई है.
वामदलों के हार के पीछे सबसे बडा मुद्दा किसानों का बढ़ता आक्रोश रहा. पिछले 32 सालों से बंगाल में एक राजनीतिक दल का वर्चस्व रहा और इस वर्चस्व के पीछे की शक्ति पश्चिम बंगाल के किसान थे. लेकिन सिंगूर और नंदीग्राम की घटनाओं ने ये साबित कर दिया कि वामपंथी सरकार उद्योगीकरण के नाम पर किसानों की अति उपजाऊ जमीन उद्योगपतियों के हवाले करने में जुटी है. जनता को रोष सड़क पर आ़ गया. किसान आंदोलन कर रहे थे. सरकार उनपर गोलियां चला रही थी. माहौल ऐसा बन गया कि खुद को गरीब...






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हिंदू होने का धर्म

जाति की संकीर्णता वर्ण की वजह से नहीं
व्यालोक

नातन धर्म का सबसे बड़ा अभिशाप जाति की दीवारों को माना जाता है, इसकी संकीर्णता को माना जाता है और जातिगत बंधनों को ही सनातन धर्म का सबसे बड़ा दोष और धब्बा भी माना जाता है. यह सत्य भी है. इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती है कि वर्तमान जाति-व्यवस्था की बंदिशों और मानव-मानव के बीच भेदभाव ने सनातन धर्म के मूल तत्व पर ही प्रहार किया है और इसकी उदात्तता और उदारता पर ही प्रश्नचिह्न लगाया है. सवाल यह जायज भी है कि आखिर वसुधैव कुटुंबकम की बात करनेवाला धर्म अपने ही कुछ अनुयायियों को अस्पृश्य और त्याज्य क्यों मानता है.धारणा यह है कि जाति व्यवस्था का यह वर्तमान स्वरूप वर्णाश्रम व्यवस्था की ही देन है. यह निहायत ही ग़लत अवधारणा है. इस पर चर्चा विस्तार से आगे. पहले तो यह जानें कि वर्ण क्या है. सनातन धर्म में कर्म के आधार पर मानव समुदाय को चार वर्णों में बांटने की व्यवस्था की गई-चातुर्वर्ण्यं मया स्रष्टं गुण-कर्म विभागशः (गीता)- जो कालांतर में जाति-प्रथा के ज़हर में बदल गई. वैसे कर्म के आधार पर केवल सनातन धर्म में ही मनुष्यों का विभाजन किया गया है, ऐसा नहीं है. यूनानी दार्शनिक प्लेटो ने भी मनुष्यों की चार जातियों का उल्लेख किया है. इसी तरह पारसियों के सर्वोच्च धर्म ग्रंथ जेंद अवेस्ता में भी मनुष्यों की चार जातियों या वर्णों का उल्लेख है. अवेस्ता में इनके नाम आथ्रवन (ब्राह्मण), रथैस्तार (क्षत्रिय), वारस्त्रयोष (वैश्य) और हुतोक्ष (शूद्र) हैं. सनातन धर्म में जिस तरह द्विजों का उपनयन संस्कार होता था, उसी तरह पारसियों में भी नवजोत (नवजात) संस्कार किया जाता है. इसमें उऩको मेखला, पवित्र कुरता और टोपी पहनाई जाती है. कहने का मतलब यह कि समाज की व्यवस्था को सुचारू रूप से बनाए और चलाए रखने के लिए सनातन धर्म के अलावा भी कई समाजों में वर्ण के आधार पर मनुष्य को विभाजित करने का रिवाज था. ठीक इसी तरह, वर्ण व्यवस्था को जाति का पूरक मान लेना भी ग़लत होगा. ऋग्वेद या कहें वैदिक काल तक तो सनातन धर्म त्रिवर्णी ही था. ऋग्वेद में शूद्र शब्द का इस्तेमाल केवल एक बार हुआ है, वह भी पुरुष सूक्त में. वेदों और उपनिषदों का रहस्य उद्घाटित करनेवाले जर्मन विद्वान मैक्समूलर और कोलब्रुक दोनों ही पुरुष सूक्त को क्षेपक (बाद में जोड़ा गया) मानते हैं. इन दोनों ही मनीषियों के अनुसार पुरुष सूक्त की भाषा और शैली इसे ऋग्वेद से अलग खड़ा करती है. इसी तरह राजन्य शब्द का भी प्रयोग ऋग्वेद में एक ही बार हुआ है. ठीक इसी तरह रंग के आधार पर मनुष्यों के वर्ण का निर्धारण महाभारत काल में ही किया गया है. इसी में बताया गया है कि क्षत्रिय लाल रंग के, ब्राह्मण गौर वर्ण के और शूद्र काले रंग के होते हैं. कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि ऋग्वेद काल तक सनातन धर्म में त्रिवर्णों का ही उल्लेख था. साथ ही, वर्ण व्यवस्था में शूद्रों को सबसे नीचे का और अधिकाधिक बंधनों का पायदान भी मनुस्मृति के बाद ही दिया गया. मनुस्मृति में ही यह तय कर दिया गया कि शूद्रों का काम केवल द्विजों की सेवा करना है, ब्राह्मण अपनी मर्जी से जब और जहां चाहें, शूद्रों को भेज सकते है और जितनी चाहें...



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महान लेखक का बुढ़भस

अनंत विजय

र विदियाधर सूरजप्रसाद नायपॉल, विश्व साहित्य के बड़े नाम हैं, नोबल पुरस्कार विजेता भी हैं. दो दर्जन से अधिक किताबों के लेखक, साहित्य की दुनिया में किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं . कई लोगों का मानना है कि नायपॉल भारतीय मूल के लेखकों में सबसे महत्वपूर्ण लेखक हैं और कुछ हद तक ये सही भी है . एक लेखक के रूप में नायपॉल का उदय पचास के दशक के अंतिम वर्षों में हुआ और उत्तर औपनिवेशिक लेखन में उनके नाम का डंका बजने लगा. उनके शुरुआती उपन्यासों में उनके लेखन की विलक्षणता साफ तौर पर परिलक्षित की जा सकती है. उनके शुरुआती उपन्यासों में एक खास किस्म की ताजगी दिखाई देती है, जिसमें जीवन के विविध रंगों के साथ लेखक का ह्यूमर और उसके आसपास के लोक और समाज की घटनाओं का बेहतरीन चित्रण भी है. कई लोगों का मानना है कि नायपॉल के लेखन ने बाद के भारतीय लेखकों के के लिए एक ठोस जमीन भी तैयार कर दी . साठ और सत्तर के दशक में भी सर विदियाधर के लेखन का परचम अपनी बुलंदी पर था . उस दौरान लिखे उनके उपन्यास - अ हाउस फॉर मि. विश्वास- से उन्हें खासी प्रसिद्धि मिली और इस उपन्यास को उत्तर औपनिवेशिक लेखन में मील का पत्थर माना गया . नायपॉल का लेखक उन्हें लगातार भारत की ओर लेकर लौटता है. नायपॉल ने भारत के बारे में उस दौर में तीन किताबें लिखी - एन एरिया ऑफ डार्कनेस (1964), इंडिया अ वुंडेड सिविलाइजेशन (1977) और इंडिया: अ मिलियन म्युटिनी नाउ (1990) लिखी. इस दौर तक तो नायपॉल के अंदर का लेखक बेहद बेचैन रहता था, तमाम यात्राएं करता रहता था और अपने लेखन के लिए कच्चा माल जुटाता था. एन एरिया ऑफ डार्कनेस को तो आधुनिक यात्रा साहित्य में क्लासिक्स माना जाता है. इसमें नायपॉल ने अपनी भारत की यात्रा के अनुभवों का वर्णन किया है. इस किताब में नायपॉल ने भारत में उस दौर की जाति व्यवस्था के बारे में प्रमाणिकता के साथ लिखा है. बाद के दिनों में, उम्र बढ़ने के साथ-साथ नायपॉल के लेखन में एक ठहराव सा आ गया. साथ ही विचारों में जड़ता भी.


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अपनी हार का मतलब समझिए लालू जी

सुरेंद्र किशोर

अति पिछड़ों के लिए आरक्षण, कानून-व्यवस्था में भारी सुधार और विकास योजनाओं की धमाकेदार शुरुआत ने बिहार में राजग को बड़ी चुनावी जीत दिला दी. इसके अलावा नीतीश कुमार का महादलित कार्ड और पसमांदा मुस्लिम के लिए उनकी सरकार की कल्याण योजनाओं की भी इस चुनाव में भूमिका रही.पिछले पंद्रह साल के लालू-राबड़ी शासन काल में आम तौर से इससे उलट काम होते रहे थे. इस ग़रीब, पिछड़े और अभागे प्रदेश के मतदाताओं ने दोनों निज़ामों के बीच का अंतर साफ-साफ देख लिया और पक्षपातपूर्ण सामाजिक न्याय तथा एकतरफा धर्म निरपेक्षता के नारे के कथित मसीहा लालू प्रसाद और रामविलास पासवान के गठबंधन को निर्णायक ढंग से इस बार पराजित कर दिया. संकेत बताते हैं कि लालू प्रसाद और रामविलास पासवान को अब एक बार फिर राजनीतिक तौर पर उठ खड़ा होने में काफी समय लग सकता है, क्योंकि उन्हें तो इसके लिए अपनी पूरी राजनीतिक संस्कृति ही बदलनी पड़ेगी जो उनके लिए आसान काम नहीं होगा. चुनाव नतीजे आने के बाद लालू प्रसाद और रामविलास पासवान की ओर से जो त्वरित प्रतिक्रियाएं आई हैं, उनसे तो नहीं लगता कि वे अपनी पुरानी राजनीतिक संस्कृति को बदलेंगे. शायद उसे बदलने की क्षमता ही वे खो चुके हैं. उधर कांग्रेस बिहार में एक सक्षम प्रतिपक्ष बनने की क्षमता पहले ही खो चुकी है. इस तरह यदि नीतीश सरकार का निकट भविष्यमें किसी दमदार व प्रामाणिक प्रतिपक्ष से सामना नहीं हुआ तो नीतीश कुमार के देर-सवेर एकाधिकारवादी बन जाने का ख़तरा भी सामने है. यदि यह कहा जाए कि लालू प्रसाद ख़ुद अपनी राजनीतिक कब्र खोद कर ख़ुद ही उसमें लेट गये हैं तो इस बात में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी. लालू प्रसाद सन 2000 से ही राजनीतिक रूप से कमज़ोर होना शुरू हो गये थे. सन 1996 में चारा घोटाले...




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राजनैतिक दलों को जनता की स्पष्ट चेतावनी


संतोष भारतीय

जनता ने अपना फैसला सुना दिया, लेकिन यह केवल फैसला नहीं है, चेतावनी भी है. यह चेतावनी राजनीति के आकाश पर साफ-साफ लिखी है और पढ़ी जा सकती है, बशर्ते कांग्रेस पार्टी और सरकार के पास इसे पढ़ने और समझने का व़क्त हो. इस समय कांग्रेस और मनमोहन सरकार के आसपास भांड़ों का मेला है जो ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला कर साबित करने में जुटे हैं कि उन्होंने तो कांग्रेस के जीतने की पहले ही भविष्यवाणी कर दी थी, अब ये भांड़ राजनीति की मलाई में मुंह मारना चाहते हैं. इन भांड़ों ने पहले भाजपा को जिताया, बाद में दोनों को बराबर दिखा कर अस्थिरता की भविष्यवाणी की, अब ये रोज़ झूठ

बोलकर कांग्रेस को गुमराह कर रहे हैं. ये भांड़ ही कांग्रेस की चरणवंदना और प्रशस्तिगान करते-करते उसे मदहोशी का ज़हर पिलाएंगे, और नशे में कर इतने ग़लत काम करा देंगे जिससे जनता कांग्रेस के ख़िला़फ खड़ी हो जाएगी. चारण अपनी भंड़ैती की पराकाष्ठा पर चले गए हैं और कांग्रेस को भरोसा दिला रहे हैं कि उसने 206 नहीं बल्कि चार सौ चौदह सीटें जीत लीं हैं, जो इतिहास में केवल एक बार राजीव गांधी ने जीती थीं. हमें दुख है कि पत्रकारिता में ऐसे चारणों की भरमार हो गई है जो केवल एक सिद्धांत में भरोसा करते हैं कि उन्हें सरकारी पार्टी में रहना है, फिर सरकार चाहे कांग्रेस की बने या भाजपा
की या किसी और की. यह समस्या कांग्रेस की है कि वह नशा पिलाने वालों को अपने आसपास इकट्ठा क्यों कर रही है, क्यों इनके जाल में फंस रही है और क्यों अपने शुभेच्छुओं से दूर हो रही है. हम कांग्रेस को अप्रिय सत्य बताना चाहते हैं. उसे इन चारणों और भांड़ों से हटकर इस बात पर सोचना चाहिए कि पिछले सालों में हुए सभी विधानसभा चुनावों में हार के बावजूद क्यों जनता ने उसे लोकसभा में सबसे ब़ड़ी पार्टी के रूप में जिताया. इतना ही नहीं, जनता ने कमरतोड़ महंगाई पर भी ध्यान नहीं दिया. दालों की क़ीमत, गेहूं, चना, ज्वार, बाजरा, मसाले, तेल यहां तक कि चीनी का भाव भी कांग्रेस के नेता चाहें तो पता कर लें. पांच हज़ार या उससे कम कमाने वाले देश में करोड़ों हैं, उनकी चाय में चीनी नहीं पड़ती, वे नमक डालकर चाय पी रहे हैं. बेरोज़गारी का हाल बताने की ज़रूरत नहीं, हर चौथे घर में कोई न कोई बेकारी का शिकार है. इसी मई में ही करोड़ों नौकरियां गईं, क्योंकि कंपनियों ने मंदी का बहाना बना छंटनी कर दी है. नौजवान बेराज़गारों को किसी क़ानून की मदद का भरोसा नहीं है. इसके अलावा किसान अपनी खाद को लेकर परेशान है, जो उसे इस बार बहुत महंगी दर पर ब्लैक में मिलेगी. क़र्ज़ के जाल से निकलने का उसके पास कोई रास्ता नहीं है. क़र्ज़ माफी उसे तात्कालिक राहत दे गई, पर किसान को मालूम है कि क़र्ज़ के जाल में उसे दोबारा फंसना ही है, क्योंकि वित्त मंत्रालय की नीति ही उसे इस जाल में जकड़े रहने की है. मज़दूरों के काम के दिन घटते जा रहे हैं, हालांकि सरकार ने ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना चलाई है जिस का फायदा बड़े तबके को हुआ, लेकिन तीन सौ पैंसठ दिन में केवल सौ दिन काम की गारंटी और वह आमदनी भी महंगाई की भेंट चढ़ जाती है. ऐन मौके पर देश में बोफोर्स केस का खुलासा और सिख दंगे को लेकर कांग्रेस के सज्जन कुमार और जगदीश टाइटलर को निशाना बनाना तथा कांग्रेस का इसका मज़बूती से मुक़ाबला न करने ने अच्छा असर नहीं छोड़ा.



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