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सोमवार, 13 जुलाई 2009

संसद, सर्वोच्च न्यायालय और सबसे बड़ी

सेक्स मंडी


सन साठ के दशक में अमेरिका में कई नई बातें हुईं, जिनमें एक था वहां पर ड्रग्स का फैलाव. इसने तेज़ी से नौजवानों को अपने जाल में जकड़ना शुरू किया. ड्रग्स, यानी नशीली दवाओं के कई प्रकार सामने आए. लेकिन नौजवान इसमें उतनी तेज़ी से नहीं फंसे, जितनी तेज़ी से वहां पर बना ताक़तवार ड्रग्स माफिया चाहता था. सरकार भी चेती और उसने सख्ती कर दी, परिणामस्वरूप ड्रग्स का फैलाव थोड़ा धीमा हो गया.ड्रग्स का विरोध करने के लिए वहां कई सामाजिक संगठन खड़े हो गए. सेमीनार होने लगे, जिनमें बताया जाने लगा कि नशीली दवाएं ख़तरनाक हैं, इन्हें लेने वाला सपनों की दुनिया में चला जाता है, थोड़ी देर के लिए वह अपने वर्तमान से कट जाता है तथा संपूर्ण मुक्ति की अवस्था में वह पहुंच जाता है. ऐसी भाषा इस्तेमाल की जाने लगी कि सामाजिक व्यवस्था से विद्रोह करने के नाम पर नशीली दवाएं लेना सही रास्ता नहीं है. कई जगह यह भी बताया जाता था कि नशे की गोली या इंजेक्शन लेने पर लगता कैसा है. गोलियों और इंजेक्शनों को लेना किस मात्रा में ज़्यादा ख़तरनाक है, यह भी ड्रग्स विरोधी आंदोलनकारी बताते थे. सारा अमेरिका और यूरोप इन सेमीनारों, सभा, सम्मेलनों आदि के ज़रिए ड्रग्स के दुष्परिणमों से परिचित हो गया.लेकिन सन पच्चासी में आकर एक नया खुलासा हुआ. चूंकि ड्रग्स माफिया ने एनजीओ खड़े कर दिए, सभाओं, सेमीनारों के लिए फंड करना शुरू कर दिया, इसलिए उसने ड्रग्स का विरोध करने के नाम पर ड्रग्स का प्रचार शुरू करवा दिया और अमेरिका और यूरोप में सफलतापूर्वक अपना धंधा तीन सौ गुना ज़्यादा बढ़ा लिया. सरकार समझ ही नहीं पाई कि उसकी नाक के नीचे इतना बड़ा ग़ैरक़ानूनी धंधा बढ़ गया जिसने वहां की राजनीति तक में अपना प्रभाव बढ़ा लिया. पुलिस, प्रसासन, राजनीति सभी इन माफिया गु्रपों से डरने लगे. आज अमेरिका और यूरोप में सरकार के बाद की बड़ी ताक़त यही माफिया है, जिस पर हाथ डालना वहां की सरकारों के बस में भी नहीं रह गया है.
इससे मिलता-जुलता क़िस्सा हमारे देश में भी दोहराया जा रहा है, लेकिन यह ड्रग्स या नशीली दवाओं से जुड़ा नहीं है. हमारे देश में बड़ी मांग सालों पहले उठी कि हमारे यहां वेश्यावृत्ति को क़ानूनी दर्जा दे दिया जाए, वेश्याओं को लाइसेंस दिए जाएं ताकि वे टैक्स दें, अपने स्वास्थ्य की जांच कराएं और चोरी छुपे धंधा कर समाज का स्वास्थ्य न चौपट करें. यह अभियान सफल नहीं हो पाया, क्योंकि भारत की बड़ी आबादी के संस्कारों के कारण अभियान केवल सभा सेमीनारों तक ही सीमित रह गया, इसे जन समर्थन नहीं मिल पाया.भारत में एक क़ानून है, तीन सौ सतहत्तर. यह क़ानून कहता है कि कोई भी अप्राकृतिक यौन संबंध बनाए, चाहे वह पुरुष करे, महिला करे या कोई पशुओं के साथ करे, उसे क़ानूनन आजीवन कारावास तक का दंड दिया जा सकता है. चाहे यह काम खुले रूप में हो या किसी बंद कमरे में, दंड एक ही होगा. दस साल पहले देश में कुछ संस्थाओं ने आवाज़ उठाई कि यह क़ानून होमो सेक्सुअल लोगों की आज़ादी में बाधा डालता है. बंद कमरे में सैकड़ों सालों से बहुत कम लोग यह काम करते रहे हैं, चाहे वे पुरुष हों या स्त्री. बच्चे जब बड़े होने लगते हैं तो उनमें अपने विकसित होते अंगों को लेकर उत्सुकता होती है और वे आपस में आकर्षित हो जाते हैं. लेकिन सोलह साल आते-आते उनमें समझ आ जाती है. बहुत-सी जगहों पर, जहां वयस्कों को स्त्री के पास जाने का अवसर नहीं मिलता, वहां भी एक बहुत छोटी संख्या अप्राकृतिक यौन संबंध अस्थाई तौर बना लेती है. अभी भी सौ करोड़ के मुल्क में अंगुलियों पर भी गिने जाने लायक लोग नहीं हैं जो कहें कि उन्हें अप्राकृतिक यौन संबंध बनाने का अधिकार दिया जाए.
इसके बावजूद देश में ऐसे एनजीओ बनने लगे जो इन संबंधों की वकालत करने लगे. इनमें से कुछ ने कहा कि अप्राकृतिक यौन संबंधों की वजह से एड्‌स के फैलने का ख़तरा ज़्यादा है, इसलिए ऐसे लोगों का समूह हाई रिस्क ग्रुप है. और चूंकि तीन सौ सतहत्तर धारा की वजह से ये लोग सामने नहीं आते तो हम उनका इलाज और काउंसिलिंग नहीं कर पाते. इसलिए यह धारा समाप्त होनी चाहिए. जब हम अप्राकृतिक यौन संबंध की बात या होमो सेक्सुअल की बात कहते हैं तो इसे पुरुष और पुरुष के बीच का सेक्स संबंध मानना चाहिए, क्योंकि अभी तक स्त्री और स्त्री के बीच का सेक्स संबंध एड्‌स के कारणों के फैलाव में नहीं गिना जा रहा. मज़े की बात यह कि सरकार के पास न कोई अध्ययन रिपोर्ट है और न सरकारी आंकड़ा है कि पुरुष से पुरुष के सेक्स संबंध से कितनों में एड्‌स का फैलाव हुआ और उनमें अब तक कितने मरे. इतना ही नहीं, एड्‌स की जांच में औरतों की संख्या...


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