
मंगलवार, 15 दिसंबर 2009
यौनकर्मियों के बच्चे खुद ही लिख डाली जुल्म—ओ—सितम की दास्तां

ज़रदारी की पकड़ से बाहर हुए परमाणु हथियार

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न्यायपालिका की विधायी शक्तियां

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यह वी पी सिंह की जीत है

तिहासपुरुष अवतार नहीं लेते, अपने कर्मों से बनते हैं. ऐसे लोग अपने जीवनकाल में कुछ ऐसा कर जाते हैं, जिसे आने वाली पीढ़ियां याद रखती हैं, उन्हें नमन करती हैं. जब ऐसे महापुरुषों का जीवन समाज के सबसे ग़रीब और कमज़ोर वर्गों की संघर्ष की कहानी बन जाता है, जो दूसरों के लिए कष्ट उठाता हो, जो अपनी मौत से लड़कर दूसरों की ज़िंदगी संवारता हो, जो मर कर भी बेसहारों का सहारा बन जाता हो. उसे हम मसीहा कहते हैं. वी पी सिंह ऐसे ही लोगों में से हैं.दादरी के किसान खुश हैं. उन्हें न्याय मिला है. जो लड़ाई वी पी सिंह ने छेड़ी थी, उसका परिणाम आया है. दादरी के मामले पर वी पी सिंह ने न स़िर्फ आंदोलन किया, बल्कि उन्होंने इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका भी दायर की.
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भोपाल गैस त्रासदी : उदासीनता के पच्चीस बरस

इस भटकाव की वजह क्या है

दलाई लामा को चीन में लोकतंत्र आने की उम्मीद

रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट

असम में क्यों नाकाम रही क्षेत्रवाद की राजनीति
दिनकर कुमार
असम में क्षेत्रवाद की राजनीति के भविष्य को लेकर इन दिनों का़फी चर्चाएं हो रही हैं. इस चर्चा के केंद्र में है असम गण परिषद. अपनी स्थापना के साथ ही यह राजनीतिक दल जनता का ध्यान आकर्षित करता रहा है. अगप यानी असम गण परिषद की गतिविधियों में स्थानीय मीडिया की भी ़खासी दिलचस्पी रहती है. छह वर्षों तक चले विदेशी बहिष्कार आंदोलन के गर्भ से अगप का जन्म हुआ था और उस समय इसे जनता का ज़बरदस्त समर्थन प्राप्त हुआ था. अगप ने दो बार विधानसभा चुनावों में जीत हासिल कर राज्य में अपनी सरकार भी बनाई. इसने कांग्रेस के परपंरागत वोट बैंक में सेंध लगाकर उसे पराजित करने का करिश्मा कर दिखाया था. दरअसल, कांग्रेस का शुरू से ही मानना रहा कि जब तक अली-कुली यानी मुसलमान एवं चाय बागान के मज़दूर असम में हैं, तब तक उसे कोई नहीं हरा सकता. सबसे पहले गोलाप बरबरा के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार ने कांग्रेस के दर्प को चूर किया और फिर अगप ने. एक समय वह भी था, जब अगप क्षेत्रवाद का प्रतीक बन गई थी. स्वाभाविक तौर पर आज यह सवाल फिर सामने ख़डा है कि क्या अगप फिर सरकार बनाने में सफल हो पाएगी?ऐसा भी नहीं है कि असम में अगप के वजूद में आने से पहले कोई क्षेत्रीय दल नहीं था. जानकार बताते हैं कि कोच राजवंशी समुदाय के लिए पृथक उदयाचल राज्य की मांग के पीछे एक कांग्रेसी नेता का हाथ था, जो बाद में मुख्यमंत्री बन गए और अपनी मांग को भूल गए. लेकिन आज भी कोच राजवंशी समुदाय पृथक कमतापुर राज्य के लिए आंदोलन चला रहा है...
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स़िर्फ एक क़ानून ने ज़िदगी दुश्वार कर दी

देश के दो सबसे संवेदनशील भू-भाग. एक तो उत्तर में भारत का सिरमौर जम्मू-कश्मीर और दूसरा देश के उत्तर पूर्व का हिस्सा. दोनों ही जगहों के लोग और सिविल सोसाइटी औपचारिक तौर पर पहली बार नवंबर में एक साथ नज़र आए. वे आर्म्ड फोर्सेस (स्पेशल पावर) एक्ट 1958 को खत्म करने की मांग करने के लिए एकजुट हुए थे. दिल्ली में इनकी बैठक हुई, जिसमें ज़मीनी स्तर पर काम करने वाले कई संगठनों ने हिस्सा लिया. वे एकजुट होकर एएफएसपीए के खिलाफ अभियान चलाने पर सहमत हुए. उनका विचार था कि इस अधिनियम ने लोकतांत्रिक आकांक्षाओं को दबा दिया है. यह क़ानून अगर और भी लंबे समय तक चलता रहा तो हिंसा का दौर गहराता ही चला जाएगा. प्रतिभागियों के बीच इस बात को लेकर आम सहमति थी कि राजनीतिक अस्थिरता की मूल वजह को खत्म करने के लिए ज़रूरी लोकतांत्रिक संभावना तभी तलाशी जा सकती है, जबकि इस क़ानून को खत्म कर दिया जाए. एएफएसपीए, जिसे पूर्वोत्तर राज्य के पहले विद्रोही संगठन नागा काउंसिल को नेस्तनाबूद करने के लिए लाया गया था, आतंकवाद को जड़ से खत्म कर पाने में सक्षम नहीं है. आज असम और मणिपुर में कम से कम 75 आतंकवादी संगठन हैं और इस क्षेत्र के दूसरे राज्यों में भी कई भूमिगत संगठन हैं. ठीक इसी तरह, जम्मू-कश्मीर में भी 1990 में आर्म्ड फोर्सेस (जम्मू-कश्मीर) स्पेशल पावर एक्ट लाया गया, लेकिन यह आतंकवाद का स़फाया नहीं कर पाया.....
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रूपकुंड से आगे की यात्रा

यह दवा नहीं ज़हर है.... आयुर्वेदिक कंपनियों की दवाओं में स्टेरॉयड
