चौथी दुनिया पढ़िए, फैसला कीजिए

मंगलवार, 15 दिसंबर 2009

यौनकर्मियों के बच्चे खुद ही लिख डाली जुल्म—ओ—सितम की दास्तां


विमल रॉय
वर्ष 2004 में अमेरिकी महिला फ़िल्मकार जाना ब्रिस्की एवं जॉन कुफमैन ने सोनागाछी की यौनकर्मियों के बच्चों पर एक डाक्युमेंट्री फ़िल्म बनाई-बोर्न इनटू ब्रोथेल्स. इसे साल की सर्वश्रेष्ठ डाक्युमेंट्री फ़िल्म का अवार्ड मिला. 2004 में इसे लेकर कुछ वैसा हो-हल्ला मचा, जैसे इस वर्ष स्लमडॉग मिलेनियर को लेकर मचा था. इनके बच्चों को फोटोग्राफी सिखाने के बहाने दोनों फ़िल्मकारों ने यौनकर्मियों की अंतरंग ज़िंदगी के भीतर तक झांका. एक बच्चे को तो एमस्टर्डम की फोटोग्राफी कांफ्रेंस तक में भेजा गया. इस फ़िल्म ने दोनों हाथों से डॉलर कमाए और एक हिस्सा सोनागाछी की यौनकर्मियों के बच्चों के लिए भी खर्च किया.उक्त बच्चे कुछ समय तक लाइम लाइट में रहे और फिर सारा मामला जस का तस हो गया. कुछ जमालों और लतिकाओं की ज़िंदगी में कुछ समय के लिए बहार आई, पर बाक़ी बच्चों को अभी भी किसी तारणहार का इंतज़ार है.
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ज़रदारी की पकड़ से बाहर हुए परमाणु हथियार

अहमद रशीद

अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने जैसे ही अ़फग़ानिस्तान में आतंकवाद के ख़िला़फ अपनी नई नीति की घोषणा की, वैसे ही दुनिया के सबसे ख़तरनाक देश पाकिस्तान में हालात और भी ख़राब हो गए. पाकिस्तानी सेना व विपक्ष के दबाव में आकर पाकिस्तान के राष्ट्रपति आस़िफ अली ज़रदारी को देश की परमाणु कमान प्रधानमंत्री यूसु़फ रज़ा गिलानी को सौंपनी पड़ी. यह महज़ एक शुरुआत है. ज़रदारी ने यह क़दम भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते संभवत: महाभियोग से बचने के लिए उठाया है. इस क़दम से उन्होंने सेना को संतुष्ट करने की कोशिश की है, जो उन्हें कमज़ोर करने के लिए तैयार बैठी है.पिछले कुछ दिनों से कुछ राजनीतिक दल सेना के साथ मिलकर ज़रदारी को कमज़ोर करने की मुहिम चला रहे हैं. उनकी कोशिश ज़रदारी पर दबाव बनाकर उन्हें पद छोड़ने के लिए मजबूर कर देने और उनकी जगह पर किसी कठपुतली को राष्ट्रपति की कुर्सी पर बैठा देने की है.


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न्यायपालिका की विधायी शक्तियां

रवि किशोर
हाल में उच्चतम न्यायालय द्वारा विधायी कार्य का दायित्व संभालने को लेकर उच्चतर न्यायपालिका के सदस्यों में मतभेद देखने को मिला है. मतभेद इस बात को लेकर उभरा कि क्या किसी कार्यक्षेत्र विशेष में कोई क़ानून न होने पर उच्चतम न्यायालय विधायिका का काम कर सकता है. उच्चतम न्यायालय के दो न्यायाधीशों की खंडपीठ ने इस मसले को पांच न्यायाधीशों की संवैधानिक खंडपीठ के पास भेजा है. इस मामले में कहा गया है कि न्यायपालिका को उन क्षेत्रों के लिए क़ानून बनाना चाहिए या नहीं, जिनके लिए कोई क़ानून नहीं बनाए गए हैं. दरअसल, न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू और ए के गांगुली की खंडपीठ ने कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में चुनाव को कारगर बनाने के लिए 2006 में अरिजीत पसायत की अध्यक्षता वाली दो न्यायाधीशों की खंडपीठ से भिन्न संदर्भ दिया. दोनों न्यायाधीश काटजू और गांगुली ने ऐसा निर्देश देने के लिए अलग-अलग वजह बताई. न्यायाधीश काटजू ने कहा कि संविधान के तहत अधिकारों का व्यापक विभाजन है और इसीलिए राज्य की एक इकाई को दूसरे के अधिकार क्षेत्र में दख़ल नहीं देना चाहिए. न्यायपालिका को विधायिका अथवा कार्यपालिका की जगह नहीं लेनी चाहिए. न्यायाधीश काटजू ने जो सवाल उठाया है, उसका निर्णय संविधान पीठ द्वारा किया जाना चाहिए. चाहे वह 22 सितंबर 2006 को न्यायालय द्वारा दिए गए.



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यह वी पी सिंह की जीत है

संतोष भारतीय
भारतीय राजनीति की दिशा और दशा बदलने वाले वी पी सिंह कई वर्षों से किसी भी सदन के सदस्य नहीं थे, लेकिन उन्होंने किसान आंदोलन का जो बीज बोया है, उसके फलने-फूलने का समय आ गया है. इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के बाद देश भर के किसानों की आशा जगी है.
तिहासपुरुष अवतार नहीं लेते, अपने कर्मों से बनते हैं. ऐसे लोग अपने जीवनकाल में कुछ ऐसा कर जाते हैं, जिसे आने वाली पीढ़ियां याद रखती हैं, उन्हें नमन करती हैं. जब ऐसे महापुरुषों का जीवन समाज के सबसे ग़रीब और कमज़ोर वर्गों की संघर्ष की कहानी बन जाता है, जो दूसरों के लिए कष्ट उठाता हो, जो अपनी मौत से लड़कर दूसरों की ज़िंदगी संवारता हो, जो मर कर भी बेसहारों का सहारा बन जाता हो. उसे हम मसीहा कहते हैं. वी पी सिंह ऐसे ही लोगों में से हैं.दादरी के किसान खुश हैं. उन्हें न्याय मिला है. जो लड़ाई वी पी सिंह ने छेड़ी थी, उसका परिणाम आया है. दादरी के मामले पर वी पी सिंह ने न स़िर्फ आंदोलन किया, बल्कि उन्होंने इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका भी दायर की.



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भोपाल गैस त्रासदी : उदासीनता के पच्चीस बरस

एम जे अकबर
किसी भी ज़ख्म की हरेक बरसी- चाहे वह भोपाल गैस त्रासदी, भागलपुर दंगा, ऑपरेशन ब्लूस्टार हो या फिर अहमदाबाद या दिल्ली की गलियों में सिख विरोधी दंगा हो- गुस्से और एमनिसिया (भूलने की बीमारी) के बीच संघर्ष में बदल जाती है. इनके बीच कोई मुक़ाबला ही नहीं है. जीत हमेशा एमनिसिया की होती है. भोपाल में हम अंधे हो गए. सांप्रदायिक दंगों में हम निर्दयी हो जाते हैं. अयोध्या मामले में हमारे पास सबूत नहीं है. शासन में हम नासमझी दिखाते हैं. और संभव है, गुस्से में हम मुद्दाविहीन हो जाते हों. शायद यह निर्धारित तथ्य है कि पीड़ितों को छोड़कर, अपराध या आपराधिक मामलों के समय से ही चुप्पी अख्तियार कर लेने में हर किसी का निहित स्वार्थ होता है. सरकारें संभव है, दंगों को प्रेरित और उकसाती हों, लेकिन ऐसा लोगों की भागीदारी के बग़ैर कभी संभव ही नहीं है. प्रत्येक राजनीतिक दल के इतिहास में यह एक पीड़ादायक सच्चाई है. बहरहाल, आख़िर क्या वजह है कि भोपाल त्रासदी के ग़ुनहगारों, यूनियन कार्बाइड और डाओ केमिकल के लिए सख्त उदासीनता बरती गई? पच्चीस साल पहले भोपाल में यूनियन कार्बाइड की फैक्ट्री से 40 टन हवाई ज़हर मिथाइल आइसोसाइनेट के रूप में निकला, जिसकी वजह से उसी व़क्त लगभग 4,000 लोगों की मौत हो गई और तब से लेकर आज तक 15,000 के आसपास लोग मौत की नींद सो चुके हैं. यह अपराध लालच की वजह से हुआ, क्योंकि सुरक्षित विकल्पों की अपेक्षा यह गैस सस्ता पड़ता था. इस वजह से ही इस गैस का इस्तेमाल किया जा रहा था. बहुत कम समय में इस मामले की लीपापोती ने इस मामले को संदिग्ध बना दिया. कार्बाइड ने इस दुर्घटना के लिए असंतुष्ट कर्मचारियों को ज़िम्मेदार ठहराया. हालांकि इन कर्मचारियों के नाम कभी सामने नहीं आए. ऐसा आरोप आसानी से बच निकलने के लिए लगाया गया. 2001 में, डाओ केमिकल ने कार्बाइड को 11.6 बिलियन डॉलर में...



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इस भटकाव की वजह क्या है

महेंद्र अवधेश
बीती 15 नवंबर को राष्ट्रीय राजधानी की एक अदालत ने एक ऐसे शिक्षक को एक लाख रुपये मुआवजे की सजा से दंडित किया, जिसने आज से 12 वर्ष पहले एक छात्र को पूरे दिन निर्वस्त्र ख़डा रखा था. अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश प्रतिभा रानी ने अपने फैसले में उक्त शिक्षक को निर्देश दिया कि वह बतौर मुआवजा एक लाख रुपये पी़िडत छात्र को अदा करे. घटना 25 मई 1997 की है. दिल्ली के एक राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय के शिक्षक पी सी गुप्ता ने अपनी कक्षा के एक तेरह वर्षीय छात्र को विद्यालय के तालाब में नहाते हुए पक़ड लिया. गुप्ता उस छात्र के कृत्य से इतने नाराज हुए कि उन्होंने पहले उसे जमकर पीटा, फिर पूरे समय तक विद्यालय में निर्वस्त्र ख़डा रखा. बाद में अभिभावकों ने उनके खिलाफ पुलिस में शिकायत दर्ज कराई, मुकदमा चला और 19 मार्च 2007 को निचली अदालत ने गुप्ता को एक वर्ष की कैद और ढाई हजार रुपये जुर्माने की सजा सुना दी. गुप्ता इन दिनों अपनी सजा काट रहे थे. उन्होंने निचली अदालत के उसी फैसले को चुनौती दी थी. उनकी अपील के आलोक में न्यायमूर्ति प्रतिभा रानी ने अपना ताजा फैसला दिया है. अच्छे व्यवहार की शर्त पर गुप्ता को दो वर्ष की परिवीक्षा अवधि पर रिहा करने से पहले न्यायमूर्ति प्रतिभा रानी ने उनकी हरकत की क़डे शब्दों में निंदा भी की. पिछले कुछ दिनों से इस तरह की घटनाएं अक्सर ही सुनने-प़ढने को मिलती रहती हैं, जिनमें मामूली सी गलती पर शिक्षकों द्वारा छात्र-छात्राओं को ब़डी बेरहमी से दंडित किए जाने की बात.



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दलाई लामा को चीन में लोकतंत्र आने की उम्मीद

राजकुमार शर्मा
तिब्बतियों के धर्मगुरु दलाई लामा को पूरी उम्मीद है कि चीन में लोकतंत्र के आगमन में अब ज़्यादा देर नहीं है. वह कहते हैं कि गांधीजी के अहिंसा के मार्ग पर चलकर हम पूरे चीन में लोकतंत्र लाना चाहते हैं. पूरा विश्वास है कि पूरे चीन में लोकतंत्र के पक्ष में जो हवा चल रही है, उसे किसी भी हालत में वहां की सत्ता के शिखर पर बैठे लोग रोक नहीं पाएंगे. दलाई लामा ने कहा कि अमेरिका की तिब्बत के प्रति प्रतिबद्धता की बात पर उन्हें किसी तरह की आशंका नहीं है. अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा तिब्बत की स्वायत्तता का संरक्षण करते हैं. दलाई लामा पिछले दिनों हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला स्थित मैलोडगंज के चुगंलाखंग बौद्धमठ में आईएफडब्ल्यूजे के बैनर तले पत्रकारों को संबोधित कर रहे थे.दलाई लामा के अनुसार, ओबामा ने अपने चुनाव के समय भी उनसे बात कर तिब्बत की स्वायत्तता का समर्थन किया था. उन्होंने ओबामा के चीन जाने से पहले उनसे इसलिए मुलाकात नहीं की, ताकि चीन किसी पूर्वाग्रह से ग्रसित न हो जाए. उनसे मिलकर जाने पर इस बात की आशंका थी कि चीन अमेरिका के ख़िला़फ कोई भी कड़ा रुख अपना सकता था. उन्होंने उम्मीद जताई कि अगले साल ओबामा से उनकी मुलाकात ज़रूर होगी. दलाई लामा कहते हैं, हमने चीन के संविधान के अंतर्गत रहकर ही तिब्बत की स्वायत्तता की मांग की है, लेकिन चीन के मन में भय है, इसलिए वह हमें अलगाववादी के रूप में प्रचारित करता रहता है. हमारे प्रयास के ठोस नतीजे अभी तक भले ही न निकले हों, लेकिन आज स्थितियां पूरे चीन में बदल रही हैं. जनता का भी मन बदल रहा है. वहां के हजारों शिक्षकों, पत्रकारों, लेखकों और न्यायपालिका से जुड़े लोगों ने हमसे मिलकर बदलाव की बात कही है. चीन की वर्तमान शासन व्यवस्था का़फी पुरानी हो चुकी है, जनता अब बदलाव का मन बना रही है. लोग चाहते हैं कि मीडिया एवं न्यायपालिका स्वतंत्र रहे और ...


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रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट

रूबी अरुण
राजनीतिक दलों में उबाल आ चुका है. रंगनाथ मिश्र कमीशन की अनुशंसाओं को संसद में पेश करने की मांग को लेकर राजनीतिक पार्टियां सरकार के ख़िला़फ आंदोलन की रूपरेखा तैयार कर चुकी हैं. समाजवादी पार्टी इस मसले को लेकर जंतर-मंतर पर धरना-प्रदर्शन करने वाली है. भाजपा, जदयू, राजद एवं लोजपा के सांसद भी संसद और चौथी दुनिया अ़खबार के ज़रिए सरकार पर दबाव बना रहे हैं. इस मसले पर कोहराम मचा हुआ है, पर सरकार ने इस पर बिल्कुल चुप्पी साध रखी है. लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट लीक होने के मुद्दे पर चौतऱफा घिरी यूपीए सरकार अब रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट चौथी दुनिया में छप जाने के बाद सांसत में पड़ी दिख रही है. समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव कहते हैं कि सरकार तो इस कमीशन की अनुशंसाओं पर ग़र्द डाल चुकी थी. अगर चौथी दुनिया ने इस रिपोर्ट को नहीं छापा होता तो यूपीए सरकार देश के ग़रीब दलित मुस्लिमों और दलित ईसाइयों के हक़ों के साथ खिलवाड़ करने का पूरा मन बना चुकी थी, लेकिन अब ऐसा नहीं हो पाएगा, क्योंकि चौथी दुनिया अख़बार और इसके संपादक संतोष भारतीय ने देश की राजनीतिक पार्टियों को सरकार के ख़िला़फ एक पुख्ता आधार दे दिया है. इसकी बिना पर हम सरकार को इस बात के लिए मजबूर कर देंगे कि वह रंगनाथ मिश्र कमीशन की अनुशंसाओं पर न स़िर्फ संसद में बहस कराए, बल्कि उन्हें लागू भी करे. समाजवादी पार्टी के महासचिव अमर सिंह ख़ासे उत्तेजित हैं. इस मसले पर वह यूपीए सरकार पर बरस पड़ते हैं. कहते हैं कि सरकार ने कमीशन का गठन दलित मुसलमानों और दलित ईसाइयों की आंखों में धूल झोंकने के लिए किया. दरअसल सरकार यह चाहती ही नहीं कि देश का यह कमज़ोर तबका तरक्की करे या आगे ब़ढे. यूपीए सरकार स़िर्फ अपने मतलब का खेल, खेल रही है. अमर सिंह कहते हैं कि उत्तर प्रदेश में 2010 में विधानसभा चुनाव होने हैं, इसलिए सरकार अपने वोट बैंक की चिंता में कमीशन की रिपोर्ट को संसद में पेश नहीं कर रही है. अमर सिंह सवाल करते हैं कि जब दूसरी जाति के लोगों को आरक्षण दिया जा रहा है तो मुसलमानों को बाहर क्यों रखा जा रहा है? सरकार आरक्षण के मसले पर दोहरा मानदंड क्यों अपना रही है? सरकार को इस बात का जवाब देना ही होगा.ज़ाहिर है, चौथी दुनिया में रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट छपने के बाद सरकार पर इसे संसद में पेश करने को लेकर दबाव बेहद ब़ढ चुका है. रंगनाथ मिश्र कमीशन की स़िफारिशें ऐसी हैं, जिन पर आसानी से अमल नहीं हो सकता. कमीशन ने जो स़िफारिशें दी हैं, उनके मुताबिक़ केंद्र सरकार और राज्य सरकार की नौकरियों में सभी कैडर और गे्रड के पदों पर अल्पसंख्यकों को 15 फीसदी आरक्षण दिया जाएगा. शिक्षा में भी यह आरक्षण 15 फीसदी होगा. इसमें दस ़फीसदी हिस्सा मुसलमानों को दिया जाएगा. जो अल्पसंख्यक उम्मीदवार सामान्य मेरिट लिस्ट में होंगे, वे आरक्षण सीमा से बाहर होंगे. मुस्लिम और ईसाई दलितों को अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति की सूची में शामिल किया जाएगा.....


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असम में क्यों नाकाम रही क्षेत्रवाद की राजनीति

दिनकर कुमार

असम में क्षेत्रवाद की राजनीति के भविष्य को लेकर इन दिनों का़फी चर्चाएं हो रही हैं. इस चर्चा के केंद्र में है असम गण परिषद. अपनी स्थापना के साथ ही यह राजनीतिक दल जनता का ध्यान आकर्षित करता रहा है. अगप यानी असम गण परिषद की गतिविधियों में स्थानीय मीडिया की भी ़खासी दिलचस्पी रहती है. छह वर्षों तक चले विदेशी बहिष्कार आंदोलन के गर्भ से अगप का जन्म हुआ था और उस समय इसे जनता का ज़बरदस्त समर्थन प्राप्त हुआ था. अगप ने दो बार विधानसभा चुनावों में जीत हासिल कर राज्य में अपनी सरकार भी बनाई. इसने कांग्रेस के परपंरागत वोट बैंक में सेंध लगाकर उसे पराजित करने का करिश्मा कर दिखाया था. दरअसल, कांग्रेस का शुरू से ही मानना रहा कि जब तक अली-कुली यानी मुसलमान एवं चाय बागान के मज़दूर असम में हैं, तब तक उसे कोई नहीं हरा सकता. सबसे पहले गोलाप बरबरा के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार ने कांग्रेस के दर्प को चूर किया और फिर अगप ने. एक समय वह भी था, जब अगप क्षेत्रवाद का प्रतीक बन गई थी. स्वाभाविक तौर पर आज यह सवाल फिर सामने ख़डा है कि क्या अगप फिर सरकार बनाने में सफल हो पाएगी?ऐसा भी नहीं है कि असम में अगप के वजूद में आने से पहले कोई क्षेत्रीय दल नहीं था. जानकार बताते हैं कि कोच राजवंशी समुदाय के लिए पृथक उदयाचल राज्य की मांग के पीछे एक कांग्रेसी नेता का हाथ था, जो बाद में मुख्यमंत्री बन गए और अपनी मांग को भूल गए. लेकिन आज भी कोच राजवंशी समुदाय पृथक कमतापुर राज्य के लिए आंदोलन चला रहा है...


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स़िर्फ एक क़ानून ने ज़िदगी दुश्वार कर दी

बुला देवी
एएफएसपीए, जिसे पूर्वोत्तर राज्य के पहले विद्रोही संगठन नागा काउंसिल को नेस्तनाबूद करने के लिए लाया गया था, आतंकवाद को जड़ से खत्म कर पाने में सक्षम नहीं है. आज असम और मणिपुर में कम से कम 75 आतंकवादी संगठन हैं और इस क्षेत्र के दूसरे राज्यों में भी कई भूमिगत संगठन हैं.
देश के दो सबसे संवेदनशील भू-भाग. एक तो उत्तर में भारत का सिरमौर जम्मू-कश्मीर और दूसरा देश के उत्तर पूर्व का हिस्सा. दोनों ही जगहों के लोग और सिविल सोसाइटी औपचारिक तौर पर पहली बार नवंबर में एक साथ नज़र आए. वे आर्म्ड फोर्सेस (स्पेशल पावर) एक्ट 1958 को खत्म करने की मांग करने के लिए एकजुट हुए थे. दिल्ली में इनकी बैठक हुई, जिसमें ज़मीनी स्तर पर काम करने वाले कई संगठनों ने हिस्सा लिया. वे एकजुट होकर एएफएसपीए के खिलाफ अभियान चलाने पर सहमत हुए. उनका विचार था कि इस अधिनियम ने लोकतांत्रिक आकांक्षाओं को दबा दिया है. यह क़ानून अगर और भी लंबे समय तक चलता रहा तो हिंसा का दौर गहराता ही चला जाएगा. प्रतिभागियों के बीच इस बात को लेकर आम सहमति थी कि राजनीतिक अस्थिरता की मूल वजह को खत्म करने के लिए ज़रूरी लोकतांत्रिक संभावना तभी तलाशी जा सकती है, जबकि इस क़ानून को खत्म कर दिया जाए. एएफएसपीए, जिसे पूर्वोत्तर राज्य के पहले विद्रोही संगठन नागा काउंसिल को नेस्तनाबूद करने के लिए लाया गया था, आतंकवाद को जड़ से खत्म कर पाने में सक्षम नहीं है. आज असम और मणिपुर में कम से कम 75 आतंकवादी संगठन हैं और इस क्षेत्र के दूसरे राज्यों में भी कई भूमिगत संगठन हैं. ठीक इसी तरह, जम्मू-कश्मीर में भी 1990 में आर्म्ड फोर्सेस (जम्मू-कश्मीर) स्पेशल पावर एक्ट लाया गया, लेकिन यह आतंकवाद का स़फाया नहीं कर पाया.....



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रूपकुंड से आगे की यात्रा

अनंत विजय
पिछले दिनों कई मित्रों से इस बारे में बातें हुईं कि नया क्या पढ़ा है. मित्रों ने कई ऐसी किताबों के नाम बताए जिसे या तो प़ढ चुका था या फिर पत्रों में उसकी चर्चा पढ़कर इतना जान चुका था कि उसमें नया कुछ लग नहीं रहा था. इस बीच एक वरिष्ठ आलोचक से बात हो रही थी. नई किताबों पर उनसे चर्चा शुरू हुई तो उन्होंने कहा कि उत्तराखंड के मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक की एक किताब-हिमालय का महाकुम्भ नंदा राजजात आई है, और वह किताब उल्लेखनीय है. उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि मुझे वह किताब पढ़नी ही चाहिए. बातचीत खत्म हो गई, लेकिन उस किताब को लेकर मेरे मन में कोई उत्साह नहीं बना.....


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यह दवा नहीं ज़हर है.... आयुर्वेदिक कंपनियों की दवाओं में स्टेरॉयड

शशि शेखर
कहते हैं कि ज्यों-ज्यों दवा की, मर्ज़ बढ़ता ही गया. आ़िखर क्यों न बढ़े मर्ज़? जब दवा की शक्ल में आप ज़हर लेंगे तो मर्ज़ बढ़ेगा ही. वह भी उन नामी-गिरामी आयुर्वेदिक कंपनियों की दवाएं, जिनका नाम ही विश्वास का प्रतीक माना जाता है. ज़रा सोचिए, उस मां का क्या हाल होगा, जिसे यह पता चले कि जो दवा वह अपने बच्चे को उसकी स्मरण शक्ति बढ़ाने के लिए पिला रही है, असल में वही दवा बच्चे को मानसिक रोगी बना रही है अथवा किडनी और लीवर से जुड़ी बीमारियों को जन्म दे रही है. आप उस व़क्त क्या करेंगे, जब यह पता चले कि जिस दवा का इस्तेमाल आपकी बीवी कर रही है, वह दवा उसे ब्लड प्रेशर, हार्ट, किडनी से जुड़े रोग परोस रही है. कुछ ऐसी ही आयुर्वेदिक कंपनियों और उनके द्वारा बनाई जा रही दवाओं की खबर ली है चौथी दुनिया ने, ताकि आपको समय रहते सचेत किया जा सके. हम यहां उन कंपनियों और उनकी मशहूर दवाओं के बारे में बता रहे हैं, जो असल में हमारे और आपके लिए दवा की शक्ल में ज़हर हैं.....
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