चौथी दुनिया पढ़िए, फैसला कीजिए

रविवार, 24 मई 2009

भाजपा को सलाहकारों ने डुबोया

मनीष कुमार

चाल, चिंतन और चरित्र में राजनीति अद्‌भुत होती है. हालिया चुनावी नतीजों ने यह बात बेहद साफ कर दी है. भाजपा के लिए तो और अधिक. कितनी अजीब बात है कि पांच वर्षों तक लालकृष्ण आडवाणी जिस शख्स के इशारे पर फैसले लेते रहे, जिस सलाहकार की हर बात को पत्थर की लकीर मानते रहे, आज वही शख्स हार के लिए आडवाणी को ही ज़िम्मेदार बता रहा है. वह शख्स हैं-सुधींद्र कुलकर्णी. आडवाणी के सलाहकार नंबर वन. उन्होंने चुनाव नतीजे आने के अगलेे ही दिन एक अंग्रेज़ी अख़बार में लिख दिया कि इस चुनाव में आडवाणी एक विजेता के तेवर नहीं दिखा सके. आडवाणी अगर चुनाव के दौरान कुछ कठोर फैसले लेते लिए होते तो शायद भारतीय जनता पार्टी की ऐसी स्थिति नहीं होती. सुधींद्र कुलकर्णी की बातों से तो यही लगता है कि वह समझते हैं कि उनकी सलाह तो सही थी, लेकिन आडवाणी ही उन पर अमल नहीं कर सके. क्या सुधींद्र की नज़र में आडवाणी कड़े फैसले लेने में अक्षम हैं? अब इसका जवाब तो भाजपा के लोग ही दे सकते हैं कि जो सलाहकार भाजपा के ही प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार आडवाणी पर सवाल खड़ा करे, उसकी पार्टी में उपयोगिता क्या है?

2009 के आम चुनाव में जनता ने मज़बूत नेता, मजबूर नेता और कमज़ोर नेता की बहस को ही ख़त्म कर दिया. लालकृष्ण आडवाणी न सिर्फ चुनाव हारे, बल्कि लौहपुरुष और मज़बूत नेता के ख़िताब से भी हाथ धो बैठे. अब भी भाजपा अगर उन्हें लौहपुरुष कहना जारी रखती है तो लोगों को हंसी ही आएगी. इसमें कोई शक़ नहीं कि आडवाणी भारतीय राजनीति के मैराथन धावक हैं. छह दशकों से भारतीय राजनीति की मुख्यधारा के वह एक अहम सिपाही रहे. लेकिन जीवन के आख़िरी पड़ाव में उन लोगों पर भरोसा कर लिया जो उनके पूरे किए-धरे को धो डालने की जुगत में थे. अपने जीवन की अंतिम लड़ाई में वह ऐसे सलाहकारों से घिर गए जो अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं और देश की जनता को समझने में अक्षम थे.
आडवाणी के सलाहकारों में वे लोग थे जिन्हें चुनावी राजनीति का अनुभव नहीं है. ये लोग टीवी पर बहस करने जाते हैं. एक से एक तर्क देते हैं, जिससे सामने वाला निरुत्तर हो जाता है, या कम से कम ऐसा दिखने तो लगता ही है. लेकिन उन्हें यह बात समझ में नहीं आई कि तर्क से बहस जीती जा सकती है, चुनाव जीतने के लिए तो वोट चाहिए होते हैं. आडवाणी के सलाहकारों में ऐसा कोई नहीं था जिसने चुनाव लड़ा हो, जो जनता के बीच से यानी ज़मीनी संघर्ष से पैदा हुआ नेता या विचारक हो. भाजपा के इन सलाहकारों और रणनीतिकारों में चुनाव लड़ने का अनुभव किसी के पास नहीं है. ये लोग एयरकंडीशन कमरे और टीवी स्टूडियो में अपनी चमक बिखेरते हैं. बात जब ज़मीनी राजनीति की हो तो ये धूमिल हो जाते हैं. ये वही लोग हैं जिन्होंने पिछली बार इंडिया शाइनिंग का नारा बुलंद किया था, जिसके कारण 2004 में पराजय का सामना करना पड़ा. भाजपा की आदत बेपरवाही की बन चुकी है या उसने अपनी ग़लतियों से नहीं सीखने का प्रण कर लिया है. वरना जिन कारणों की वजह से वह 2004 का चुनाव हार गई थी, वही ग़लती कैसे दोहरा सकती थी?...
पूरी ख़बर के लिए पढ़ें चौथी दुनिया (www.chauthiduniya.com)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें