राहुल मिश्र
बंगाल और केरल की जनता ने कथनी और करनी में अंतर रखने वाली पार्टियों को इस चुनाव में सजा दी. इन राज्यों वाममोर्चा की ऐसी हार हुई कि अब इनके नेता चेहरा छुपाए घूम रहे हैं. बंगाल की हार इतनी शर्मनाक है कि मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने तो इस्तीफा देकर अपनी साख बचाने की कोशिश की. चुनाव में हार के बाद बाममोर्चा दुविधा में फंसी है. ये दुविधा विचारधारा को लेकर, संगठन और सहयोगियों को लेकर है. बंगाल और केरल की जनता ने न सिर्फ वामपंथ के किले को ढ़हा दिया, इस मोर्चे को ये संकेत दिया कि कथनी और करनी में फर्क रखकर जनता को मूर्ख नहीं बनाया जा सकता है. 2009 के चुनाव में बंगाल और केरल की जनता ने वाममोर्चे के इस विरोधाभास
को समझ गई और दंडित किया.
15वीं लोकसभा के लिए हुए मतदान में वामदलों को महज 28 सीटें हासिल हुईं, जो पिछले तीस वर्षों में उनका सबसे न्यूनतम आंकड़ा है. इससे पहले 2004 में वामदलों के पास लोकसभा की 60 सीटें थी और वह दिल्ली की सत्ता के केंद्र में बैठे नीतिगत फैसलों को सीधे तौर पर प्रभावित कर रहे थे. इन पांच सालों के दौरान राष्ट्रीय स्तर पर वामदलों के राजनीतिक आचरण पर जनता ने जनादेश दिया और आज वामदल हतप्रभ है, उन्हेंे अपने कारगुजारी पर ही सोचने की नौबत आ गई है.
वामदलों के हार के पीछे सबसे बडा मुद्दा किसानों का बढ़ता आक्रोश रहा. पिछले 32 सालों से बंगाल में एक राजनीतिक दल का वर्चस्व रहा और इस वर्चस्व के पीछे की शक्ति पश्चिम बंगाल के किसान थे. लेकिन सिंगूर और नंदीग्राम की घटनाओं ने ये साबित कर दिया कि वामपंथी सरकार उद्योगीकरण के नाम पर किसानों की अति उपजाऊ जमीन उद्योगपतियों के हवाले करने में जुटी है. जनता को रोष सड़क पर आ़ गया. किसान आंदोलन कर रहे थे. सरकार उनपर गोलियां चला रही थी. माहौल ऐसा बन गया कि खुद को गरीब...


15वीं लोकसभा के लिए हुए मतदान में वामदलों को महज 28 सीटें हासिल हुईं, जो पिछले तीस वर्षों में उनका सबसे न्यूनतम आंकड़ा है. इससे पहले 2004 में वामदलों के पास लोकसभा की 60 सीटें थी और वह दिल्ली की सत्ता के केंद्र में बैठे नीतिगत फैसलों को सीधे तौर पर प्रभावित कर रहे थे. इन पांच सालों के दौरान राष्ट्रीय स्तर पर वामदलों के राजनीतिक आचरण पर जनता ने जनादेश दिया और आज वामदल हतप्रभ है, उन्हेंे अपने कारगुजारी पर ही सोचने की नौबत आ गई है.
वामदलों के हार के पीछे सबसे बडा मुद्दा किसानों का बढ़ता आक्रोश रहा. पिछले 32 सालों से बंगाल में एक राजनीतिक दल का वर्चस्व रहा और इस वर्चस्व के पीछे की शक्ति पश्चिम बंगाल के किसान थे. लेकिन सिंगूर और नंदीग्राम की घटनाओं ने ये साबित कर दिया कि वामपंथी सरकार उद्योगीकरण के नाम पर किसानों की अति उपजाऊ जमीन उद्योगपतियों के हवाले करने में जुटी है. जनता को रोष सड़क पर आ़ गया. किसान आंदोलन कर रहे थे. सरकार उनपर गोलियां चला रही थी. माहौल ऐसा बन गया कि खुद को गरीब...
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