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रविवार, 24 मई 2009

हिंदू होने का धर्म

जाति की संकीर्णता वर्ण की वजह से नहीं
व्यालोक

नातन धर्म का सबसे बड़ा अभिशाप जाति की दीवारों को माना जाता है, इसकी संकीर्णता को माना जाता है और जातिगत बंधनों को ही सनातन धर्म का सबसे बड़ा दोष और धब्बा भी माना जाता है. यह सत्य भी है. इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती है कि वर्तमान जाति-व्यवस्था की बंदिशों और मानव-मानव के बीच भेदभाव ने सनातन धर्म के मूल तत्व पर ही प्रहार किया है और इसकी उदात्तता और उदारता पर ही प्रश्नचिह्न लगाया है. सवाल यह जायज भी है कि आखिर वसुधैव कुटुंबकम की बात करनेवाला धर्म अपने ही कुछ अनुयायियों को अस्पृश्य और त्याज्य क्यों मानता है.धारणा यह है कि जाति व्यवस्था का यह वर्तमान स्वरूप वर्णाश्रम व्यवस्था की ही देन है. यह निहायत ही ग़लत अवधारणा है. इस पर चर्चा विस्तार से आगे. पहले तो यह जानें कि वर्ण क्या है. सनातन धर्म में कर्म के आधार पर मानव समुदाय को चार वर्णों में बांटने की व्यवस्था की गई-चातुर्वर्ण्यं मया स्रष्टं गुण-कर्म विभागशः (गीता)- जो कालांतर में जाति-प्रथा के ज़हर में बदल गई. वैसे कर्म के आधार पर केवल सनातन धर्म में ही मनुष्यों का विभाजन किया गया है, ऐसा नहीं है. यूनानी दार्शनिक प्लेटो ने भी मनुष्यों की चार जातियों का उल्लेख किया है. इसी तरह पारसियों के सर्वोच्च धर्म ग्रंथ जेंद अवेस्ता में भी मनुष्यों की चार जातियों या वर्णों का उल्लेख है. अवेस्ता में इनके नाम आथ्रवन (ब्राह्मण), रथैस्तार (क्षत्रिय), वारस्त्रयोष (वैश्य) और हुतोक्ष (शूद्र) हैं. सनातन धर्म में जिस तरह द्विजों का उपनयन संस्कार होता था, उसी तरह पारसियों में भी नवजोत (नवजात) संस्कार किया जाता है. इसमें उऩको मेखला, पवित्र कुरता और टोपी पहनाई जाती है. कहने का मतलब यह कि समाज की व्यवस्था को सुचारू रूप से बनाए और चलाए रखने के लिए सनातन धर्म के अलावा भी कई समाजों में वर्ण के आधार पर मनुष्य को विभाजित करने का रिवाज था. ठीक इसी तरह, वर्ण व्यवस्था को जाति का पूरक मान लेना भी ग़लत होगा. ऋग्वेद या कहें वैदिक काल तक तो सनातन धर्म त्रिवर्णी ही था. ऋग्वेद में शूद्र शब्द का इस्तेमाल केवल एक बार हुआ है, वह भी पुरुष सूक्त में. वेदों और उपनिषदों का रहस्य उद्घाटित करनेवाले जर्मन विद्वान मैक्समूलर और कोलब्रुक दोनों ही पुरुष सूक्त को क्षेपक (बाद में जोड़ा गया) मानते हैं. इन दोनों ही मनीषियों के अनुसार पुरुष सूक्त की भाषा और शैली इसे ऋग्वेद से अलग खड़ा करती है. इसी तरह राजन्य शब्द का भी प्रयोग ऋग्वेद में एक ही बार हुआ है. ठीक इसी तरह रंग के आधार पर मनुष्यों के वर्ण का निर्धारण महाभारत काल में ही किया गया है. इसी में बताया गया है कि क्षत्रिय लाल रंग के, ब्राह्मण गौर वर्ण के और शूद्र काले रंग के होते हैं. कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि ऋग्वेद काल तक सनातन धर्म में त्रिवर्णों का ही उल्लेख था. साथ ही, वर्ण व्यवस्था में शूद्रों को सबसे नीचे का और अधिकाधिक बंधनों का पायदान भी मनुस्मृति के बाद ही दिया गया. मनुस्मृति में ही यह तय कर दिया गया कि शूद्रों का काम केवल द्विजों की सेवा करना है, ब्राह्मण अपनी मर्जी से जब और जहां चाहें, शूद्रों को भेज सकते है और जितनी चाहें...



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महान लेखक का बुढ़भस

अनंत विजय

र विदियाधर सूरजप्रसाद नायपॉल, विश्व साहित्य के बड़े नाम हैं, नोबल पुरस्कार विजेता भी हैं. दो दर्जन से अधिक किताबों के लेखक, साहित्य की दुनिया में किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं . कई लोगों का मानना है कि नायपॉल भारतीय मूल के लेखकों में सबसे महत्वपूर्ण लेखक हैं और कुछ हद तक ये सही भी है . एक लेखक के रूप में नायपॉल का उदय पचास के दशक के अंतिम वर्षों में हुआ और उत्तर औपनिवेशिक लेखन में उनके नाम का डंका बजने लगा. उनके शुरुआती उपन्यासों में उनके लेखन की विलक्षणता साफ तौर पर परिलक्षित की जा सकती है. उनके शुरुआती उपन्यासों में एक खास किस्म की ताजगी दिखाई देती है, जिसमें जीवन के विविध रंगों के साथ लेखक का ह्यूमर और उसके आसपास के लोक और समाज की घटनाओं का बेहतरीन चित्रण भी है. कई लोगों का मानना है कि नायपॉल के लेखन ने बाद के भारतीय लेखकों के के लिए एक ठोस जमीन भी तैयार कर दी . साठ और सत्तर के दशक में भी सर विदियाधर के लेखन का परचम अपनी बुलंदी पर था . उस दौरान लिखे उनके उपन्यास - अ हाउस फॉर मि. विश्वास- से उन्हें खासी प्रसिद्धि मिली और इस उपन्यास को उत्तर औपनिवेशिक लेखन में मील का पत्थर माना गया . नायपॉल का लेखक उन्हें लगातार भारत की ओर लेकर लौटता है. नायपॉल ने भारत के बारे में उस दौर में तीन किताबें लिखी - एन एरिया ऑफ डार्कनेस (1964), इंडिया अ वुंडेड सिविलाइजेशन (1977) और इंडिया: अ मिलियन म्युटिनी नाउ (1990) लिखी. इस दौर तक तो नायपॉल के अंदर का लेखक बेहद बेचैन रहता था, तमाम यात्राएं करता रहता था और अपने लेखन के लिए कच्चा माल जुटाता था. एन एरिया ऑफ डार्कनेस को तो आधुनिक यात्रा साहित्य में क्लासिक्स माना जाता है. इसमें नायपॉल ने अपनी भारत की यात्रा के अनुभवों का वर्णन किया है. इस किताब में नायपॉल ने भारत में उस दौर की जाति व्यवस्था के बारे में प्रमाणिकता के साथ लिखा है. बाद के दिनों में, उम्र बढ़ने के साथ-साथ नायपॉल के लेखन में एक ठहराव सा आ गया. साथ ही विचारों में जड़ता भी.


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