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मंगलवार, 30 जून 2009

पश्चिम बंगालः अगली बार ज्वालामुखी

वाममोर्चे ने बंगाल में भले ज़मीन खो दी हो, पर क्या किसी ने इस पर ध्यान दिया था? कांग्रेस ने 1962 और 1967 में हक़ीक़त को महसूस नहीं किया और क्या कुछ देर पहले तक किसी ने इसकी दूसरी व्याख्या की थी़ वर्ष 1962 में वामपंथी राष्ट्रवादी दृष्टिकोण से ग़लत थे. वजह यह कि उसी साल अक्तूबर में हुए त्रासद युद्ध में चीन के आक्रामक रवैए की उन्होंने निंदा नहीं की थी. ज्योति बसु ने अपने कॉमरेडों के साथ कुछ महीने जेल में भी काटे थे. पार्टी ने आंतरिक तौर पर अपनी ग़लती को सुधारा. चीन समर्थक अतिवादी अपने ढंग से क्रांति करने के लिए पार्टी से अलग हो गए. नक्सलियों (यह नाम उत्तरी बंगाल के छोटे से गांव नक्सलबारी के कारण हुआ) ने माओत्से तुंग को अपना भी चेयरमैन घोषित कर दिया. यह अलग बात है कि माओ इस बात से ख़ुश थे या नहीं, कह नहीं सकते. वामपंथी आधिकारिक तौर पर टूट चुके थे. टूटा हुआ धड़ा सीपीआई(एम) अधिक संतुलित था. यह कोलकाता के कॉलेज स्ट्रीट की स्वतंत्रता बाद की यह पीढ़ी के मनमाफिक रेडिकल था और उनके नौकरीपेशा अभिभावकों के लिए उनकी नौकरी ख़त्म करने पर तुले नक्सलियों की तुलना में अहिंसक भी. वैसे भी, भारत में समस्या सुलझाने का अनूठा तरीक़ा यही है कि समस्या की ओर से पीठ मोड़कर खड़े हो जाएं. कांग्रेस भी ऐसी उठापटक से अछूती नहीं थी. प्रणव मुखर्जी को वह समय याद होगा...
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