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सोमवार, 22 जून 2009
जाति व्यवस्था कैसे जन्मी?
व्यालोक
सनातन धर्म का जो वर्तमान स्वरूप हम देखते हैं, जाति-व्यवस्था को जो निंदनीय स्वरूप हमारे जीवन में ज़हर घोल रहा है, उसकी शुरुआत कैसे हुई, यह एक रहस्य ही है. काफी मगजपच्ची के बावजूद इस बात का कोई निश्चित प्रमाण नहीं मिलता कि जाति-प्रथा कैसे, किनके द्वारा और क्यों अस्तित्व में आई.ऋग्वेद में केवल तीन वर्णों का उल्लेख है. इसमें ब्रह्मन और क्षत्र शब्द तो आए हैं, लेकिन वैश्य या शूद्र शब्द का इस्तेमाल नहीं किया गया है. वैदिक काल में भारतीय प्रजा के लिए हरेक जगह विश शब्द का इस्तेमाल हुआ है, जिसका अर्थ बसने वाला होता है. कालांतर में शायद यही वैश्य शब्द में बदल गया. हां, पुरुष सूक्त में एक बार राजन्य और एक ही बार शूद्र शब्द का इस्तेमाल हुआ है, लेकिन उसे तो विद्वान क्षेपक मानते हैं. सवाल फिर से वही उठता है कि आखिर जाति-प्रथा की शुरुआत कैसे हुई? इसके पीछे एक तर्क तो यह समझ में आता है कि जब भारत में आर्यों का आर्येतर जातियों से संपर्क हुआ तो समाज को एक व्यवस्था देने के लिए जातिगत सोपान बनाए. अचरज की बात यही रही कि बाद में वर्ण-व्यवस्था के अंदर से सैकड़ो जातियां बन गईं. विद्वानों का मत है कि सांस्कृतिक रूप से जो जातियां या लोग पिछड़े थे, उनको ही आर्यों ने शूद्र की संज्ञा दे दी. जाति का विभाजन मनु ने बिल्कुल कठोर कर दिया. वैदिक काल में तो यह व्यवस्था बेहद लचीली थी. यहां तक कि महाभारत में कर्ण का यह संवाद भी है कि वाह्लीक देश (आज का पंजाब) में ब्राह्मण ही शूद्र और नापित बनते हैं औऱ इसका उल्टा भी होता है. ज़ाहिर है कि वैदिक काल में एक वर्ण से दूसरे वर्ण में अतिक्रमण भी खूब होता था. इसका उदाहरण हम पिछले अंक मेंही दे चुके हैं. आर्यों ने जाति-प्रथा का सहारा शायद इसी वजह से लिया कि उनको विविध संस्कृतियों के लोगों को समाज में उनकी सभ्यता के मुताबिक जगह देनी थी. जातिवाद के जरिए समाज में कई दीर्घाएं बनाई गईं, जो अलग संस्कृति और आचार के लोगों को सामाजिक संरचना में जगह मुहैया कराती थीं.यहां द्रविड़ जाति के लोग थे, जो आचार-विचार और संस्कृति के स्तर पर...
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