एम जे अकबर किसी भी ज़ख्म की हरेक बरसी- चाहे वह भोपाल गैस त्रासदी, भागलपुर दंगा, ऑपरेशन ब्लूस्टार हो या फिर अहमदाबाद या दिल्ली की गलियों में सिख विरोधी दंगा हो- गुस्से और एमनिसिया (भूलने की बीमारी) के बीच संघर्ष में बदल जाती है. इनके बीच कोई मुक़ाबला ही नहीं है. जीत हमेशा एमनिसिया की होती है. भोपाल में हम अंधे हो गए. सांप्रदायिक दंगों में हम निर्दयी हो जाते हैं. अयोध्या मामले में हमारे पास सबूत नहीं है. शासन में हम नासमझी दिखाते हैं. और संभव है, गुस्से में हम मुद्दाविहीन हो जाते हों. शायद यह निर्धारित तथ्य है कि पीड़ितों को छोड़कर, अपराध या आपराधिक मामलों के समय से ही चुप्पी अख्तियार कर लेने में हर किसी का निहित स्वार्थ होता है. सरकारें संभव है, दंगों को प्रेरित और उकसाती हों, लेकिन ऐसा लोगों की भागीदारी के बग़ैर कभी संभव ही नहीं है. प्रत्येक राजनीतिक दल के इतिहास में यह एक पीड़ादायक सच्चाई है. बहरहाल, आख़िर क्या वजह है कि भोपाल त्रासदी के ग़ुनहगारों, यूनियन कार्बाइड और डाओ केमिकल के लिए सख्त उदासीनता बरती गई? पच्चीस साल पहले भोपाल में यूनियन कार्बाइड की फैक्ट्री से 40 टन हवाई ज़हर मिथाइल आइसोसाइनेट के रूप में निकला, जिसकी वजह से उसी व़क्त लगभग 4,000 लोगों की मौत हो गई और तब से लेकर आज तक 15,000 के आसपास लोग मौत की नींद सो चुके हैं. यह अपराध लालच की वजह से हुआ, क्योंकि सुरक्षित विकल्पों की अपेक्षा यह गैस सस्ता पड़ता था. इस वजह से ही इस गैस का इस्तेमाल किया जा रहा था. बहुत कम समय में इस मामले की लीपापोती ने इस मामले को संदिग्ध बना दिया. कार्बाइड ने इस दुर्घटना के लिए असंतुष्ट कर्मचारियों को ज़िम्मेदार ठहराया. हालांकि इन कर्मचारियों के नाम कभी सामने नहीं आए. ऐसा आरोप आसानी से बच निकलने के लिए लगाया गया. 2001 में, डाओ केमिकल ने कार्बाइड को 11.6 बिलियन डॉलर में...
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