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मंगलवार, 15 दिसंबर 2009

न्यायपालिका की विधायी शक्तियां

रवि किशोर
हाल में उच्चतम न्यायालय द्वारा विधायी कार्य का दायित्व संभालने को लेकर उच्चतर न्यायपालिका के सदस्यों में मतभेद देखने को मिला है. मतभेद इस बात को लेकर उभरा कि क्या किसी कार्यक्षेत्र विशेष में कोई क़ानून न होने पर उच्चतम न्यायालय विधायिका का काम कर सकता है. उच्चतम न्यायालय के दो न्यायाधीशों की खंडपीठ ने इस मसले को पांच न्यायाधीशों की संवैधानिक खंडपीठ के पास भेजा है. इस मामले में कहा गया है कि न्यायपालिका को उन क्षेत्रों के लिए क़ानून बनाना चाहिए या नहीं, जिनके लिए कोई क़ानून नहीं बनाए गए हैं. दरअसल, न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू और ए के गांगुली की खंडपीठ ने कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में चुनाव को कारगर बनाने के लिए 2006 में अरिजीत पसायत की अध्यक्षता वाली दो न्यायाधीशों की खंडपीठ से भिन्न संदर्भ दिया. दोनों न्यायाधीश काटजू और गांगुली ने ऐसा निर्देश देने के लिए अलग-अलग वजह बताई. न्यायाधीश काटजू ने कहा कि संविधान के तहत अधिकारों का व्यापक विभाजन है और इसीलिए राज्य की एक इकाई को दूसरे के अधिकार क्षेत्र में दख़ल नहीं देना चाहिए. न्यायपालिका को विधायिका अथवा कार्यपालिका की जगह नहीं लेनी चाहिए. न्यायाधीश काटजू ने जो सवाल उठाया है, उसका निर्णय संविधान पीठ द्वारा किया जाना चाहिए. चाहे वह 22 सितंबर 2006 को न्यायालय द्वारा दिए गए.



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