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शुक्रवार, 1 जनवरी 2010

सोवियत संघ की शातिर ख़ु़फिया एजेंसी केजीबी

चौथी दुनिया ब्यूरो


केजीबी के काम करने का तरीक़ा और उसका मुख्यालय इतने रहस्यमय होते थे कि इसकी जानकारी ख़ु़फिया दुनिया की किसी भी एजेंसी को नहीं होती थी. यहां तक कि केजीबी एजेंट को भी इसके मुख्यालय की जानकारी नहीं होती थी. केजीबी का ख़ौ़फ कुछ ऐसा था कि लोग इसके बारे में बात करने से भी डरते थे. इसी से केजीबी के काम करने के रहस्यमयी अंदाज़ का अनुमान लगाया जा सकता है.


बात उस दौर की है, जब इंदिरा गांधी भारत की प्रधानमंत्री थीं. एक दिन प्रधानमंत्री आवास पर एक शख्स एक ब्रीफकेस लेकर आया. उस समय की विपक्षी पार्टियों की मानें तो ब्रीफकेस नोटों से भरा हुआ था. पैसे के लेनदेन का यह सारा खेल उस समय पार्टी के लिए फंड जुटाने वाले नेता ललित नारायण मिश्र के ज़रिए हुआ. मुमकिन है कि प्रधानमंत्री को यह बात मालूम न हो कि यह पैसा कहां से आया और किसने दिया, लेकिन ललित नारायण मिश्र यह बात बख़ूबी जानते थे कि यह सोवियत पैसा है. लेकिन यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि आख़िर सोवियत संघ से इतना पैसा कांग्रेस पार्टी के लिए क्यों आया? दरअसल, नोटों से भरा यह ब्रीफकेस सोवियत संघ की राजधानी मॉस्को से केजीबी ने भेजा था. यहां एक और सवाल उठता है कि आख़िर केजीबी क्या थी और भारतीय उपमहाद्वीप में उसकी क्या दिलचस्पी थी?
केजीबी यानी कोमितयेत गोसुदारस्त्वजेनोज़ बिज़ोपासनोस्ती या आम हिंदी में कहें तो केजीबी का मतलब है सोवियत राज्य सुरक्षा समिति. लेकिन तीन अक्षरों के इस नाम का सही मतलब दरअसल रहस्य, ख़ौ़फ और आतंक है. अपने समय में केजीबी को दुनिया की सबसे ताक़तवर ख़ु़फिया सर्विस के तौर पर जाना जाता रहा है. इसके आतंक और असर को इसी से समझा जा सकता है कि अपने अंत के कई सालों बाद भी पूर्व सोवियत संघ की इस सीक्रेट एजेंसी का नाम आज भी अंतरराष्ट्रीय ख़ु़फिया षड्‌यंत्रों से जुड़ा है.
बात 1954 की है. उस दौरान यानी 1953 से 1964 तक सोवियत संघ के राष्ट्रपति थे निकिता ख्रुश्चेव. दूसरे विश्वयुद्ध के बाद सोवियत संघ की...


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