हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने ही ओलेगा तेलिस बनाम बंबई नगर निगम मामले (1985 एसएससी-3ए 535) में यह फैसला सुनाया था कि कोई भी व्यक्ति जीविका के साधन के रूप में जुआ या वेश्यावृत्ति जैसे अवैध व अनैतिक पेशे का सहारा नहीं ले सकता. इसके बावजूद समलैंगिकता पर आए हाल के फैसले और अब यौन पेशे को क़ानूनी मान्यता देने के पक्ष में सुप्रीम कोर्ट की राय पूरी दुनिया में बदल रही फिजां और बुराइयां रोक पाने में क़ानून की विफलता की ओर इशारा करती है. ज़ाहिर है, कोर्ट की राय से यौन पेशे को क़ानूनी मान्यता देने की बहस फिर शुरू हो गई है. मानवाधिकार
संगठनों के साथ-साथ देश के लाखों यौनकर्मी क़ानून बनाने वाली मशीनरी पर दबाव बढ़ाने के लिए सड़क पर उतरने की तैयारी में हैं तो दूसरा खेमा भी अपने पुराने हथियारों से लैस होकर बीच मैदान में डटा है. सवाल यह है कि इस पेशे से जुड़ी 10-12 लाख से ज़्यादा बाल यौनकर्मियों को क्या यह हक़ देना जायज़ होगा? सवाल इसलिए अहम है कि खेलने, पढ़ने और एक आम औरत की तरह पारिवारिक ज़िंदगी जीने के मौलिक अधिकार से महरूम बच्चियां जो काम कर रही हैं, उस पर हम कैसे क़ानून की मुहर लगा सकते हैं? क्या क़ानूनी मान्यता मिलने से यौनकर्मियों की संख्या अचानक बढ़ नहीं जाएगी? बीच बहस में इन सब सवालों की बौछार हो रही है. बेहतर है कि हम दोनों पक्षों की राय जान लें...पूरी खबर के लिए चौथी दुनिया पढ़े...
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