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सोमवार, 21 दिसंबर 2009

विज्ञापनों का झूठ और आम उपभोक्ता

कांची कोहली
किसी वर्ग, लिंग या फिर सामाजिक परिदृश्य में विज्ञापनों की विवेचना कोई नई बात नहीं है. वास्तव में ऐसी बहस परिवार और मित्रों के बीच होती रहती है. मुझे यह जानने की जिज्ञासा है कि इस सभ्य समाज में रहने का सबसे बेहतर तरीक़ा क्या है? किस क़िस्म का भोजन हमारे लिए सबसे उचित है या फिर बच्चों के लिए मनोरंजन के क्या साधन सही हैं? विकास का वह कौन सा स्तर है, जो हमारे लिए ज़रूरी है, लेकिन जिसे पाना बहुत ही कठिन है?
झे नहीं पता कि इस लेख को पढ़ने वाले कितने लोग टेलीविज़न देखने में अपना समय व्यतीत करते हैं, लेकिन मैं आपसे जो कहना चाहती हूं वे कुछ मौलिक सवाल हैं, जो पिछले कुछ सालों में टेलीविज़न देखने के बाद मेरे मन में आए. ये सवाल हमारी शहरी मानसिकता पर उठे हैं.किसी वर्ग, लिंग या फिर सामाजिक परिदृश्य में विज्ञापनों की विवेचना कोई नई बात नहीं है. वास्तव में ऐसी बहस परिवार और मित्रों के बीच होती रहती है. मुझे यह जानने की जिज्ञासा है कि इस सभ्य समाज में रहने का सबसे बेहतर तरीक़ा क्या है? किस क़िस्म का भोजन हमारे लिए सबसे उचित है या फिर बच्चों के लिए मनोरंजन के क्या साधन सही हैं? विकास का वह कौन सा स्तर है, जो हमारे लिए ज़रूरी है, लेकिन जिसे पाना बहुत ही कठिन है?ज़्यादा दिन पहले की बात नहीं है, जब विज्ञापनों में दावा किया जा रहा था कि भारत को विकसित किया जा सकता है. विकास के रास्ते में आने वाली मुश्किलों को दूर किया जा सकता है. हिमालय की गोद में बांध और उन जगहों पर सड़कों का निर्माण करना जहां कभी उचित नहीं रहा, खतरों से भरा काम है.




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